Tuesday, 10 April 2018

8 अप्रैल 1929: एक दिन जिसे याद रखा जाना चाहिए

8 अप्रैल 1929: एक दिन जिसे याद रखा जाना चाहिए : प्रो. चमनलाल


  • 104
8 अप्रैल 1929 को भारत के राजनितिक इतिहास का एक ऐतिहासिक दिन था, जिसके बारे में एल.के. आडवाणी जी ने भारी तथ्य्तात्मक चूक करते हुए अपनी किताब ‘माय लाइफ माय कंट्री’ में भगत सिंह की फांसी के कारण को इस दिन से जोड़ा था, जिसके कारण उनकी इतिहास के प्रति समझदारी पर भी कई सवाल खड़े हुए. 8 अप्रैल के इस दिन के महत्व को हमें ऐतिहासिक दस्तावेजों के माध्यम से समझने और भगत सिंह और साथियों के योगदान से जुडी याद को आज भी फिर से याद करने की ज़रुरत है.
वह 8 अप्रैल दोपहर 12:30 बजे का समय था जब विट्ठलभाई पटेल (पहले उप-प्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई) जो कि केन्द्रीय विधानसभा के अध्यक्ष थे, काफी गरमा-गर्मी और बहस के बाद जब वह ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल पर वह निर्णय सुनाने वाले थे (याद रहे यह वही बिल हैं जिनके दमनात्मक और जन-विरोधी चरित्र के कारण देश की जनता में पहले से ही काफी आक्रोश और असंतोष का माहौल था) सेलेक्ट कमिटी मीटिंग में अध्यक्ष होने की अपनी हैसियत से डाले गए कास्टिंग वोट के बावजूद भी पब्लिक सेफ्टी बिल पास नहीं हो पाया था. हालाँकि ट्रेड डिस्प्यूट बिल वो किसी तरह पास करा ले गए थे लेकिन इससे पहले की वह इसका नतीजा घोषित कर पाते वहाँ एक विस्फ़ोट हुआ, जिसके कारण विधानसभा के हॉल में चारो तरफ धुआं ही धुआं फैल गया और विजिटर्स गेलेरी से दो नौजवान तेज़ आवाज़ में नारे लगाने लगे, वे तीन नारे जो बार-बार दोहराए जा रहे थे, वे थे- ‘इन्कलाब जिंदाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’. कुछ मिनटों बाद एक दूसरा विस्फ़ोट हुआ जिसके बाद असेंबली को जल्दीबाज़ी में ख़ाली कराया गया, फिर भी कुछ लोग वहाँ बचे रह गए जिनमें मोतीलाल नेहरु, मो. अली जिन्नाह, मदन मोहन मालवीय और तत्कालीन भारत सारकार के गृह सचिव जेम्स क्रेरार मौजूद थे. विजिटर्स गैलरी में जो लोग बैठे हुए थे उनमें देवदास गाँधी, महादेव देसाई, आसफ़ अली, वल्लभ भाई पटेल, ब्रजलाल नेहरु और सर शोभा सिंह, जॉन साइमन (जिन्हें साइमन कमीशन के कारण पहले से ही ख्याति/कुख्याति प्राप्त है) और ‘चाँद’ पत्रिका के ‘फांसी’ अंक के लेखक और संपादक चतुरसेन शास्त्री भी वहाँ अपने परिवार के साथ मौजूद थे जिन्हें भगत सिंह ख़ुद असेंबली में लेकर आये थे, और इसके साथ ही हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार और क्रांतिकारियों के समर्थक चमनलाल भी वहां मौजूद थे जो वहां की कार्यवाहियों को कवर कर रहे थे.

इस घटना के काफ़ी वर्षों बाद आसफ अली ने एक साक्षात्कार के दौरान इस बात का खुलासा किया की असेम्बली में जो दो बम फेंकें गए उन्हें भगत सिंह द्वारा ही फेंका जाना था पर क्योंकि बी.के. दत्त भगत सिंह से दूर नहीं रहना चाहते थे और हर अच्छे बुरे समय में उनके साथ बने रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने उन दो बमों में से एक बम की ज़िम्मेदारी ले ली थी.
नारेबाजी और गुलाबी रंग पर्चों को हॉल में उड़ाने के कुछ देर बाद सारजेंट टेरी और इंस्पेक्टर जॉनसन इन दो युवाओं की ओर बढ़े जिनमें से एक नौजवान (भगत सिंह) अपनी बन्दूक से खेल रहा था. पुलिस ऑफिसर डर के कारण इन नौजवानों की और बढ़ नहीं पा रहे थे, उनके इस डर को देखकर इन नौजवानों ने वहाँ पड़ी साइड-टेबल पर अपनी पिस्तौल रख दी. इसके बाद इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया. दोनों ही ख़ाकी शर्ट और शॉर्ट्स में थे और उनमें से एक ने फेल्ट हैट पहना हुआ था. हैट पहने हुए नौजवान का नाम भगत सिंह था और उनके दूसरे साथी का नाम बटुकेश्वर दत्त था. जयदेव कपूर नाम के उनका तीसरे साथी इस धमाके के तुरंत बाद ही हॉल से निकल गए और किसी असेम्बली सदस्य से प्राप्त उन पासों को जला दिया जिसके ज़रिये वे सभी असेम्बली में घुसे थे. भगत सिंह, बी. के. दत्त और जयदेव कपूर ये तीनों ही लोग विधानसभा के परिसर में इस घटना से पहले भी आते रहे थे इसका प्रमाण 6/4/1929 के CID रिकॉर्ड में पाया गया था और इतना ही नहीं HSRA के कमांडर चंद्रशेखर आज़ाद भी उस परिसर के प्रमाणिक अनुभव को हासिल करने के लिए वहां आते रहे थे जिससे कि कार्यवाही को कुशलता से अंजाम दिया जा सके. जो पर्चे विधानसभा में उड़ाए गए थे उन्हें बलराज नाम के व्यक्ति के नाम से जारी किया गया था जो चन्द्रशेखर आज़ाद का ही पार्टी नाम था. इस पर्चे को भगत सिंह ने लिखा था. यह परचा एक फ्रेंच क्रन्तिकारी वेलियाँ के कोटेशन से शुरू होता था ‘कि बहरों को सुनाने के लिए धामाके की ज़रुरत होती है’ चार दशक पहले इस फ्रेंच क्रांतिकारी वेलियाँ ने भी कुछ इसी प्रकार की कार्यवाही को फ़्रांस की संसद में अंजाम दिया था और उन्हें भी इस कार्यवाही के लिए मौत की सजा दी गयी थी. 8 और 9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला मैदान में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना हुई और लाला लाजपत राय की हत्या के दोषी सांडर्स की हत्या के बाद वहीं इस कार्यवाही की योजना भी तैयार की गयी थी. 30 अक्टूबर 1928 साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ एक विरोध मार्च का नेतृत्व करते हुए लाला लाजपत राय को सांडर्स ने लाठियों से पीटा जिसके कारण उन्हें गंभीर चोटें आयीं और 17 नवम्बर को उनका देहांत हो गया.
कोर्ट और पुलिस के अनुसार 8 अप्रैल को असेम्बली में किये गए इस धमाके में केवल 6 लोगों को बहुत मामूली सी चोटें आयीं थीं. मेडिकल रिपोर्ट भी चोटों की साधारणता की पुष्टि करती है. असेम्बली में रखे कुछ फर्नीचर क्षतिग्रस्त हुए थे जिसमे सीट नम्बर 87-88-89 और 146-147-148 शामिल थीं. इस अवसर पर भगत सिंह द्वारा पहनी गयी फेल्ट हैट उन्होंने दिसम्बर 1928 को कलकत्ते से ख़रीदी थी और पिस्तौल उन्हें ढाका के एक पुराने क्रांतिकारी प्रतुल दास द्वारा दी गयी थी. 8 अप्रैल को असेम्बली के अंदर जाने से पहले भगत सिंह ने अपनी घड़ी जयदेव कपूर को दी थी जो उन्हें शचीन्द्र नाथ सान्याल से मिली थी, और शचीन्द्र नाथ सान्याल को यह घड़ी रासबिहारी बोस से मिली थी फिलवक्त ये घड़ी हरदोई में है. असेम्बली में जाने से पहले भगत सिंह ने अपने नए जूते भी जयदेव के पुराने जूतों से बदल दिए थे.
इस घटना को अंजाम देने के क्रम में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त दिल्ली के सीतराम बाज़ार(फ़रवरी-मार्च) और नई सड़क(अप्रैल के प्रथम सप्ताह) पर किसी के घर रुके थे. 7 अप्रैल की रात में सुखदेव, भगवती चरण वोहरा, दुर्गा भाभी, और सुशीला दीदी को लाहौर से दिल्ली लाये थे जिससे कि वे भगत सिंह से आख़िरी बार मिल सकें. 8 अप्रैल की सुबह वे दिल्ली के कुदसिया बाग़ में पहुंचें, जहाँ उन्होंने भगत सिंह को उनकी पसंदीदा चीजें रसगुल्ले और संतरे खिलाये. सुशीला दीदी ने भगत सिंह के माथे पर खून से तिलक लगाया और इसके बाद 10:30 बजे भगत सिंह असेम्बली जाने के लिए रवाना हुए. भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को जब गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा था तब भगवती चरण वोहरा, दुर्गा भाभी और उनके तीन वर्ष के बेटे शचि ने उन्हें जाते हुए देखा. शचि ने भगत सिंह को देखते ही ‘लम्बू चाचा’ कहकर आवाज़ लगायी, दुर्गा भाभी ने शचि के मुहँ पर अपना हाथ रख दिया. अप्रैल 3 या 4 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने कश्मीरी गेट पर रामनाथ नाम के फोटोग्राफर से एक तस्वीर भी खिंचवाई थी. फेल्ट हैट पहने हुए भगत सिंह की वो तस्वीर ऐतिहासिक बन गयी और भारतीय जन मानस पर ही नहीं बल्कि उनके मन मस्तिष्क पर भी जो विदेशों में हैं हमेशा-हमेशा के लिए अंकित हो गयी. जयदेव कपूर और शिव वर्मा को कुछ दूसरे कामों की ज़िम्मेदारी दी गयी. भगत सिंह ने जिन पर्चों को असेम्बली में फेंकने के लिए टाइप किया था उनकी 10-15 कॉपी बनायीं थी. इस घटना के तुरंत बाद फोटोग्राफ के साथ बयान की कॉपियां पत्रकारों को वितरित कर दी गयीं. दुर्गा दास जो उन दिनों ‘द स्टेट्समैन’ की प्रतिनिधि थे उन्होंने सरकारी प्रकोप से बचने के लिए बयान की प्रति को कलकत्ता के बजाए लन्दन तक टेलीग्राफ करने की ज़िम्मेदारी ली और यह तरकीब काम कर गयी. चमन लाल ने असेम्बली से उन पर्चों की प्रतियाँ लीं और हिंदुस्तान टाइम्स ने घटना की शाम को ही इस घटना पर अपना एक विशेष सांध्य अंक निकाला. इस घटना को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाना गया. हिंदुस्तान टाइम्स स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक होने के कारण उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत की आँखों की किरकिरी बन चुका था. 8 अप्रैल से 12 जून के बीच जब सेशन जज द्वारा भगत सिंह और दत्त को उम्र कैद की सजा सुनाई गयी उस दौरान CID की कई रिपोर्ट्स में उन दिनों हिंदुस्तान टाइम्स के राष्ट्रवादी रुझान और भूमिका का उल्लेख किया गया है. HT के सहायक संपादक घोष को क्रांतिकरियों के कामों के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताया गया है. यहाँ तक कि ऐसा भी माना गया कि कई पुलिस वालों ने हिन्दुस्तान टाइम्स को इस केस से सम्बंधित अंदर की ख़बरें पहुंचाने का काम किया है. हिंदुस्तान टाइम्स के स्टाफ सदस्यों पर दिल्ली में भगत सिंह और दत्त को संरक्षण देने का शक़ भी था. 13 मई को सहारनपुर के एक घर में छापेमारी के दौरान भगत सिंह और दत्त कुछ फोटोग्राफ और नेगेटिव प्राप्त हुए जिसे बाद में फोटोग्राफर रामनाथ ने पुलिस द्वारा पहचान परेड कराये जाने के दौरान पहचाना भी. CID रिपोर्ट्स के रिकॉर्ड से यह पता चलता है कि लाहौर से प्रकाशित होने वाले ‘बंदेमातरम’ के 12 अप्रैल के अंक में इन फोटोग्राफ्स को प्रकाशित किया गया पर CID रिकार्ड्स से ही यह भी पता चलता है कि लाहौर में आम लोगों के बीच इन तस्वीरों का वितरण 11 अप्रैल से ही शुरू हो चुका था, जिससे की इनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

ड्यूटी कांस्टेबल लाला हंसराज साहेब द्वारा भगत सिंह और दत्त के ख़िलाफ़ एक्सप्लोसिव एक्ट 1908 के सेक्शन 34 के तहत FIR दर्ज कराई गयी. भगत सिंह के पिता किशन सिंह को 3 मई 1929 को उनसे मिलने की इजाज़त मिल पाई जब यह पता चला कि भगत सिंह के दस वर्षीय छोटे भाई जो उस समय पांचवी कक्षा का छात्र था वह भी गिरफ़्तार किया गया है. भगत सिंह अपने केस में किसी भी तरह की सफाई पेश करने या कोई कानूनी मदद प्राप्त करने हक़ में नहीं थे इसलिए आसफ़ अली की मदद से भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपना केस ख़ुद ही लड़ा. केस की सुनवाई 7 मई 1929 से शुरू हुई. भगत सिंह का कोर्ट में दिया गया ऐतिहासिक बयान ख़ुद भगत सिंह ने तैयार किया जिसे आसफ़ अली ने और परिष्कृत किया था. हालाँकि 9 जून को जज द्वारा उस बयान के कुछ हिस्सों को रिकार्ड्स से हटवा दिया गया. 12 जून 1929 को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया जिसके अनुसार दोनों क्रांतिकारियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गयी. इस निर्णय के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट में अपील दायर की गयी. लेकिन जस्टिस ई. फोर्ड और जस्टिस एडिसन ने इस अपील जिसे अपील नंबर 748 के नाम से भी जाना जाता है उसे 13 जनवरी, 1930 को ख़ारिज कर दिया और सज़ा को जारी रखा. हालाँकि जजों ने अपने फैसले में भगत सिंह को एक ईमानदार क्रांतिकारी माना है.
भगत सिंह और दत्त को पहले मियांवाली जेल और फ़िर लाहौर जेल ले जाया गया. जहाँ जेल में मूलभूत सुविधाओं के अभाव के ख़िलाफ़ उन्होंने 15 जून, 1929 को भूख हड़ताल शुरू की. बाद में जब 10 जुलाई 1929 को लाहौर षड्यंत्र केस की कार्यवाही शुरू हुई तब उन्हें भी बाकी आरोपियों के साथ लाहौर जेल भेज दिया गया. वह 25 दिन से भूख हड़ताल पर थे जिसके कारण उन्हें वहां स्ट्रेचर पर लाया गया. लाहौर केस के अन्य आरोपियों ने भी 13 जुलाई से भूख हड़ताल शुरू कर दी जिसके कारण 13 सितम्बर को भूख के कारण क्रांतिकारी जतिन दास की जेल में ही मृत्यु हो गयी. 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह को लाहौर षड्यंत्र केस में फांसी कि सज़ा सुना दी गयी. इसके ख़िलाफ़ प्रिवी काउंसिल से की गयी अपील भी फ़रवरी 1931 को ख़ारिज कर दी गयी. जिसके परिणामस्वरूप 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गयी.
जेल से बाहर आने के बाद बटुकेश्वर दत्त पटना में रहे और 1965 में दिल्ली के AIIMS में उनका देहांत हो गया. दत्त के देहांत के समय भगत सिंह की माँ विद्यावती उनके पास थीं. दत्त की इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार हुसैनीवाला(फिरोज़पुर, जहाँ पर भगत, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार हुआ था) में किया गया. उनका समाधि स्थल भी बाकी तीन शहीदों के साथ ही वहाँ स्थित है. ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ लड़ाई से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक बटुकेश्वर दत्त का अपने कामरेडों के साथ खड़े रहने का जज़्बा आज की नौजवान पीढ़ी के लिए भी प्रेरणादायी है.
(इस लेख में संसद की बम धमाके से क्षतिग्रस्त जिन सीटों का उल्लेख है या विजिटर्स गेलरी की उन सीटों पर जहाँ पर भगत सिंह और दत्त बैठे थे, उन सीटों पर आज़ादी के 71 साल बाद भी स्मृति पट्टिकाएं तक नहीं लगाई गयीं हैं जबकि इसकी मांग बहुत बार हो चुकी है. सोमनाथ चटर्जी जैसे प्रगतिशील लोकसभा अध्यक्ष के कार्यकाल में भी यह काम नहीं किया जा सका. आज भी कई सांसदों के द्वारा इस मांग को उठाया जा रहा है)
प्रो. चमन लाल के अंग्रेजी  लेख का अनुवाद: उमा ’राग’ और मीनाक्षी बरगोहाईं द्वारा
(दोनों ही अनुवादक दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में प्राध्यापक हैं)

Jamaican scholar activist Norman Girvan tribute to Bhagat Singh

Dear Chaman,

my warmest congratulations on the publication on this important subject. I was interested to read of the role and case of Bhagat Singh, who sought to avenge a brutal and tyrannical act, one of many of British imperialism, for which a proper historical accounting has never been rendered,

Best wishes for 2014! 



Norman 

https://en.wikipedia.org/wiki/Norman_Girvan

My tributes to dedicated Jamaican scholar activist Norman Girvan

Norman Girvan passed away in Cuba at the age of 72. He fell from a mountain extridition in Dominica in early 2014 and was taken to Cuba for treatment. I was hoping he would recover, he did not. We both felt sorry for not meeting each other at The University of West Indies, St. Augustine in Trinidad, where he was Professor Emirtus and I was visitng Professor in year 2011. We got connected through mail and social media and he wished to post my article on his bloghttp://www.normangirvan.info/- published in Trinidad Guardian in October 2011, for which I had to face the adverse action by Indian High Commission of that time in Port of Spain, who was my paying master, being on deputation from ICCR. He published my article in full, including one part, which was not published by Guardian, he gave even better title to the article_






    Later we remained in correspondence, which I am sharing here to remember him fondly

I wrote him with others:




Dear friends,

     Some of you know the name of Rahul Bhattacharya, I myself was mentioned about him here in Trinidad by some local friend. While I have not read the novel, but The Hindu, the most prestigious English daily of India, has conferred its first ever literary prize to the young writer, among his competitors were many literary giants. I hope my Caribbean friends will be happy at this, one of most prestigious award from India on writing based on Caribbean life.

Greetings

Chaman Lal

He replied:Dear Chaman, this is indeed a great honour for the Caribbean and the Indo-Caribbean connection. I would love to have a copy of the Citation and of Bhattacharya's acceptance speech, to post on my blog. Can you help?Best wishes, Norman

Another exchange:



Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

30/05/2012







to me



Good Morning Prf Lal,in yesterday's Trinidad Guardian there is a reference to your articles on Indentureship which were published on Ocrobe23 and 24 2011. Would you be able to send copies of same?Thank you, Norman

On 26 April 2012 14:15, chaman lal  wrote:


How colonial UK and neo-colonial US have committed worst fascist crimes against humanity, one can see here!Guyana popular leader Dr. Cheddi Jagan was toppled and was not allowed to be in power for two decades. His book 'The West on Trial' also lists the crimes of US-UK



http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/article3353535.ece










Chaman Lal prof.chaman@gmail.com

31/05/2012







to Norman



Dear Norman Girvan,

    I probably may be having links to my Trinidad Guardian articles,but I am interested to know in what reference the articles have been mentioned.Article is probably available on TT Guardian website also.

regards





Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

31/05/2012







to me



Hi Prof,it was mentioned in a letter to the Guardian on Tuesday saying you had denounced the celebration of Indian Arrival Day and the exploitation of Indian indentured workers by the imperialists. I searched the Guardian website and couldnt find your articles. If you have the links please send. I would like to read and possibly post on my blog, www.normangirvan.infoToo often people forget that Indians and Africans were both the victims of the same forces. The historical similarities need to be recalled in view of the present politically motivate divisions in the society.Norman



Here are the links of the paper, which has published my article in two installments, on the basis of which ,I am sought to be persecuted.

Regards

Chaman Lal





   







Chaman Lal prof.chaman@gmail.com

31/05/2012







to Norman



This is Pandit Priag Sooku letter,I just checked.At least there are people,who appreciate rational views!

Thanks and regards

Chaman Lal

 Chaman Lal,

Professor & Former ChairpersonCentre of Indian Languages, JNU, New DelhiFormer President JNU Teachers Association(JNUTA)





Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

01/06/2012







to me



Prof Lal,thank you very much. A very informative and thought-provoking perspective.I agree that in the same way that African-descendants celebrate Emancipation Day it is appropriate for the Indo-descendants to celebrate the Indentureship Abolition day which was a victory coming from years of struggle. It seems to me that the main point about celebrating Indian Arrival Day is to validate the presence of East Indians and their descendants in these societies and their contribution, in spite of prejudice and policies of social and political exclusion by the  colonial authorities. I suspect that both events should be marked (Arrival and Abolition) each being given their own significance. 



I am really happy that you made the point about Walter Rodney too. In fact the main reason he was assassinated is that he was threatening to succeed in forging a Working People's Alliance between the African and the Indian workers. His book on How Europe Underdeveloped Africa has just been republished by Pambazuka Press.  



By the way I am not sure if you meant to imply that Spartacus was a Caribbean slave rebel leader; of course he was not but I think led a slave rebellion against the Roman Republic in the 1st Century BC. Famous slave uprisings in the Caribbean were led by Bussa (Barbados 1816) Cuffy (Guyana 1763) and Sam Sharpe (Jamaica 1831), and Nanny of the Maroons in Jamaica led successful Maroon wars against the British in the 18th century. And the first country to abolish slavery in the Americas was Haiti (on Jan 1 1804, in the Declaration of Independence) Britain is often erroneously given the credit. Very interesting to take a look at Professor Hilary Beckles, The Hate and the Quake, at http://www.normangirvan.info/beckles-hate-quake/ 



I would love to publish your two articles on my blog, it would be good if you could look into the possibility of checking out those particular historical facts as I am sure that others would do so i it were to published as it is.



Looking forward to hearing from you,



Norman    





Chaman Lal prof.chaman@gmail.com

09/06/2012







to Norman



Dear Norman,

    Reference to Spartacus is in general context of slavery and not in particular context of Caribbean.I got the copy of Black Jacobins during my stay in Trinidad, which I could not find in India since many years. I have a piece on the book if you like I can mail it to you.Of course, Haiti was the first country not only to abolish slavery but make first black revolution in history and I admire CLR James for bringing out that history through his classic book.

   I was joining most of the time MSJ/OWTU activities during my stay in The University of the West Indies,I regret we did not meet those days.

Regards





Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

09/06/2012







to me





Categorise this message as:

Personal



Never show this again

Dear Chaman,I am sorry we did not meet too. So you do you wish me to use your articles as they are, without any changes?I will send you a flyer about an event next week.Best wishes, Norman



Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

13/06/2012







to me, Ozzi



Prof Lal--thank you. I hope you approve of the new title I have given it. This is posted on my blog to coincide with the event to re-launch Rodney's book on How Europe Underdeveloped Africa. It makes an excellent companion piece!In solidarity, Norman



Imperialism and East Indian Indentureship, Chaman Lal

Posted by Norman Girvan 
Chaman Lal, who was visiting Professor at Hindi Chair at the UWI , St Augustine, is Professor & Former Chairperson at the Centre of Indian Languages, Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi. His article recounts the cruel history of Indian indentureship as a source of exploited labour post-Emancipation and the long and ultimately successful struggle to eliminate it and to forge African-Indian Unity, highlighting the role of Mahatma Gandhi, Cheddi Jagan, CLR James and Walter Rodney.

Read Imperialism and East Indian Indentureship





Chaman Lal prof.chaman@gmail.com

13/06/2012







to Norman



Dear Norman,

  I do like your new shape to article,but I missed one thing,as TT Guardian left one part of my article,for blog,complete article would have been better,I am attaching the left out part,which in fact is the last part,which you can put as you deem right.

In solidarity

 Chaman Lal,Professor & Former ChairpersonCentre of Indian Languages, JNU, New DelhiFormer President JNU Teachers Association(JNUTA)_Lalwww.facebook.com/Dr.Chaman.JNU  http://in.linkedin.com/in/chamanlaljnu









Left Out part of What to Celebrate from The Guardian published article.doc



Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

13/06/2012







to me



So happy to get this. I will fix it.PS You can listen to the Rodney Forum tonight at 6 PM TT time in radio I95, link.Norman



CLICK HERE FOR LIVE AUDIO STREAMING OF PANEL DISCUSSION, WEDNESDAY 13 JUNE 6 PM TT TIME ON RADIO I95 FROM TRINIDAD

Go to the link above, bottom bar  and Click on “HI”, “MD” or “LO

How Europe Underdeveloped Africa



Walter Rodney’s classic study, How Europe Underdeveloped Africa has just been republished by Pambazuka Press. You are invited to a Panel Discussion on the book at the Cipriani Labour College, CLR James Auditorium, on Wednesday June 13 at 6 PM. Speakers will include Dr Patricia Rodney, Dr George Lamming, Dr Jerome Teelucksing, Mr David Abdulah, Mr Firoze Manji and myself as Chair. The event is sponsored by the O.W.T.U. as the C.L.R. James Memorial Lecture for 2012.





Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

13/06/2012







to me









Chaman--I have added the last section. Also I've changed the title because of your point.I've also taken the liberty of inserting references to the Caribbean slave revolts and Haiti in place of Spartacus. I hope you dont mind'.This is really good.Norman



Imperialism and Indian Indentureship, Chaman Lal

Posted by Norman GirvanChaman Lal, who was  visiting Professor at Hindi Chair at the UWI , St Augustine, is Professor & Former Chairperson at the Centre of Indian Languages, Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi. His article recounts the cruel history of Indian indentureship as a source of exploited labour post-Emanicpation and the long struggle to eliminate it and subsequent movements to forge African-Indian Unity, including  the roles of Mahatma Gandhi, Cheddi Jagan, CLR James and Walter Rodney.



Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

05/09/2012











Please note the addition of the following:

A Lost Opportunity? The Jamaican Independence Experience  Taitu Heron

The entire selection can be accessed at the home page ofwww.normangirvan.info



Thanks, Norman  





On 5 September 2012 09:07, Norman Girvan  wrote:


CRITICAL COMMENTARIES ON CARIBBEAN ‘INDEPENDENCE’

50 Years of Jamaican In-Dependence  Norman Girvan

The Colonisation of Independence  Lloyd Best

The Myth of Independence  Louis Lindsay

Trinidad and Tobago - A State But Not Yet A Nation  Michael Harris

Towards a New Democracy and a New Independence  Tennyson Joseph

George Lamming on Collective Caribbean Amnesia

-- Norman GirvanProfessor Emeritus, UWI (Trinidad)

And the last message:






Norman Girvan norman.girvan@gmail.com

25/12/2013







to me





Dear Chaman,

my warmest congratulations on the publication on this important subject. I was interested to read of the role and case of Bhagat Singh, who sought to avenge a brutal and tyrannical act, one of many of British imperialism, for which a proper historical accounting has never been rendered,

Best wishes for 2014! 



Norman 



  And shortly after I got the news of his fall, which I shared on face book with my wishes for his recovery and suddenly this news, feel really sad, but pay my tributes to great humanist schaolar activist:






Monday, 9 April 2018

“We need you again”: Shaheed Bhagat Singh remembered

“We need you again”: Shaheed Bhagat Singh remembered

File photo of Shaheed Bhagat Singh

The Hindu right wing has been trying to appropriate the Marxist revolutionary for long but without much success

“On Shaheed Bhagat Singh’s birth anniversary, Sanghis are busy appropriating communist Bhagat Singh. How about campaigning to rename Chandigarh airport?” wrote Saileena on twitter as social media users wished Bhagat Singh, one of the shining icons of the Indian freedom movement on his 110th birth anniversary.
Born in Banga village of Faisalabad district (previously called Lyallpur) now in Pakistan's Punjab province in 1907 on this day, he was moved by the freedom struggle and the Jalianwala Bagh Massacre that happened when he was just 12 years old. An avid reader and later on a writer, Bhagat Singh was drawn to subjects like socialism, communism among others.

Changing narrative

Retired professor from Jawaharlal Nehru University Chaman Lal wrote in an article: “Bhagat Singh narratives have become highly politicised lately, his writings and ideas based images and narratives are being tried to be superimposed on his real, objective and ideas based images and narratives, as RSS does with all history, but how long? Bhagat Singh is like a burning fire, even in his iconic existence, he does not allow rightist fascists to even touch him and exposes their duplicity and hypocrisy in no time, as it happened in matter of naming Chandigarh airport on his name. Both Punjab and Haryana Governments in 2009 had unanimously urged Central Government to name Chandigarh airport as Shaheed Bhagat Singh International Airport, however while name chanting RSS tried to name it on little known RSS leader Mangal Sen first and then adopted a conspiratorial silence on the issue.”
The author of Understanding Bhagat Singh further stated in the article: “While Yogi Aditynath is bent upon getting Gorakhpur airport named on Yogi Gorakhnath, Agra airport on Deendyal Upadhyaya and Mughal Sarai railway station as Deen Dyal station, the cat is out of bag on Bhagat Singh. None in RSS wants his name to be perpetuated by naming Chandigarh airport on his name or naming any University on his name, though keeping name chanting on!”

On atheism
Bhagat Singh’s revolutionary essay “Why I am an atheist” is widely read among the youth of the country and it punctures all attempts by the Hindu right wing to appropriate him.
“Open your eyes and see millions of people dying of hunger in slums and huts dirtier than the grim dungeons of prisons; just see the labourers patiently or say apathetically while the rich vampires suck their blood; bring to mind the wastage of human energy that will make a man with a little common sense shiver in horror. Just observe rich nations throwing their surplus produce into the sea instead of distributing it among the needy and deprived. There are palaces of kings built upon the foundations laid with human bones. Let them see all this and say “All is well in God’s Kingdom.” Why so? This is my question. You are silent,” he wrote in the essay before he was hanged in the Lahore jail at the age of 23, along with Shivaram Hari Rajguru and Sukhdev Thapar on March 23, 1931.
Arrested in April 1929 for exploding bombs inside the Central Legislative Assembly in Delhi along with Batukeshwar Dutt and implicated in the killing of a British police officer in Lahore, he spent two years in jail.

On revolution

During the trail, Dutt was represented by a counsel whereas Bhagat Singh chose to fight his own case with the help of a legal advisor. This is how they explained their understanding of revolution in the Court on June 6, 1929:
By ‘Revolution,’ we mean that the present order of things, which is based on manifest injustice must change. Producers or labourers, in spite of being the most necessary element of society, are robbed by their exploiters of their labour and deprived of their elementary rights. The peasant who grows corn for all, starves with his family; the weaver who supplies the world market with textile fabrics, has not enough to cover his own and his children’s bodies; masons, smiths and carpenters who raise magnificent palaces, live like pariahs in the slums. The capitalists and exploiters, the parasites of society, squander millions on their whims.

On casteism

Bhagat Singh wrote on caste discrimination in a separate article, “… It is often said that untouchables do not keep themselves clean. The reason for this is simple – they are poor. Solve their poverty. The poor from the high caste too do not live any cleaner. … Councils and Assemblies need to push for freedom of untouchables to use schools-colleges, wells and roads. But in a legislative where a lot of fuss is created over issues like religion and bill against child-marriage, how can they muster courage to enrol untouchables among themselves? That’s why we believe that untouchables must have their own elected representatives. They must demand greater rights for themselves.”
Tributes poured in for him on his birth anniversary from political leaders to Bollywood personalities and civil society. Prime Minister Narendra Modi tweeted this morning, “I bow to the brave Shaheed Bhagat Singh on his Jayanti. His greatness and exemplary courage inspires generations of Indians.”
A twitter user wrote: “Happy Birthday Shaheed Bhagat Singh. We need you. India is in crisis again, this time our own people are killing India. We need that revolution again We need you again. Come back if you can.”
Here’s is a collection of birthday wishes to the legendry freedom fighter on his birth anniversary
Earlier this year, the avenging pistol – the epic .32 mm bore Colt automatic pistol of Bhagat Singh – which he had used for killing British officer John Saunders on December 17, 1928 – was put up on display at Border Security Force Museum in Hussainiwala on Indo-Pak border near Ferozepur.