खूनी रौलट एक्ट को तीन साल में ही वापस ले लिया गया था, लेकिन अपने यहां 'देसी' शासकों द्वारा थोपे गए DIR, MISA, UAPA और AFPSA कानून अब भी लागू हैं.
कहा जाता है कि इतिहास ख़ुद को दोहराता है, पहले त्रासदी और फिर मज़ाक़ के रूप में. जलियांवाला बाग़ जनसंहार के सौ साल बाद भी यही हो रहा है. इससे जुड़ा मुद्दा उठने के बाद जब ब्रिटिश संसद में इस पर चर्चा हुई तो प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे ने जवाब में ‘गहरा खेद’ जताते हुए ‘ब्रिटिश भारत’ के इतिहास में इसे ‘शर्मनाक धब्बा’ तो क़रार दिया लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक दौर में भारतीयों पर ढाए गए ज़ुल्मों के लिए ‘माफ़ी’ नहीं मांगी.
हमें उम्मीद थी कि ब्रिटेन के मौजूदा नीति नियामक अपने औपनिवेशिक अतीत की निंदा करेंगे, लेकिन बीती सदी की इस हौलनाक घटना को लेकर हमारा रवैया कैसा है? ये वो घटना है जो हर उस अत्याचार का प्रतीक बन गई जिसे चाहे अंग्रेज़ों ने अंज़ाम दिया हो या फिर पहले कांग्रेस और अब बीजेपी जैसी देशी शासक पार्टियों ने.
छात्र, किसान, मज़दूर या किसी भी आम आदमी पर पुलिस या सैन्य बलों के ज़ुल्मों को दर्शाने के लिए हम बराबर ‘एक और जलियांवाला’ पद का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन कई बार इसमें तंज भी होता है. एक भी व्यक्ति की हत्या को वाज़िब नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन ‘एक और जलियांवाला’ कहने से हम उस भीषण त्रासदी के असर को कमतर करते हुए सहज राजनीतिक जुमले में तब्दील कर देते हैं.
जलियांवाला बाग़ स्मारक
जलियांवाल बाग़ हत्याकांड की पृष्ठभूमि की अगर तलाश करें तो ये 1918 से शुरू होती है जब लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने लॉर्ड सिडनी रौलट की अगुवाई में राजद्रोह से जुड़ी एक समिति का गठन किया. इस समिति का गठन पंजाब और बंगाल में तेज़ हो रही क्रांतिकारी गतिविधियों पर बातचीत करने के लिए किया गया. ख़ासकर 1915 में गदर पार्टी के आंदोलन के बाद पैदा हुई परिस्थितियों पर अंग्रेज़ों की नज़र थी. राजद्रोह समिति की रिपोर्ट 1918 में जमा हो गई और इसी रिपोर्ट के आधार पर एक दमनकारी क़ानून पारित हुआ- द एनार्किएल एंड रिवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट 1919, जिसे आम तौर पर रौलट एक्ट या फिर काला क़ानून कहा जाता है. 10 मार्च 1919 को जब दिल्ली के इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में इसे पारित किया गया तो काउंसिल के भारतीय सदस्यों ने इसकी पुरज़ोर मुख़ालफ़त की. उस वक़्त के भारतीय नेताओं ने इस पर तगड़ा प्रतिवाद किया और 30 मार्च 1919 को इसके ख़िलाफ़ हड़ताल का ऐलान कर महात्मा गांधी राष्ट्रीय पटल पर स्थापित हो गए.
चूंकि आनन-फानन में इस हड़ताल का ऐलान किया गया था, इसलिए इसकी तारीख़ बदलकर 6 अप्रैल को राष्ट्रव्यापी हड़ताल की गई, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली समेत कई जगहों पर 30 मार्च को भी हड़ताल देखने को मिली. दिल्ली में छिट-पुट हिंसा की घटना भी हुई और पुलिस ने बर्बरता से इसका जवाब दिया.
उसी साल कांग्रेस पार्टी अमृतसर में अपना अधिवेशन करना चाहती थी. महात्मा गांधी उससे पहले कभी पंजाब नहीं गए थे. 6 अप्रैल की हड़ताल से पहले पंजाब पहुंचने के लिए वो ट्रेन में बैठ गए. लेकिन, 30 अप्रैल को दिल्ली में हुए प्रदर्शन के बाद उनके दिल्ली आने पर भी रोक लगा दी गई. उन्हें पलवल में रोककर वहीं से वापस भेज दिया गया.
पंजाब और ख़ासकर अमृतसर में हलचल तेज़ होने लगी. 9 अप्रैल 1919 को रामनवमी का दिन था. डॉक्टर सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू पंजाब में कांग्रेस के दो बेहद लोकप्रिय नेता थे. उन दोनों की पहल पर उस बार हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर रामनवमी मनाई. ब्रिटिश सत्ताधारी इस बात से डर गए क्योंकि इससे पहले हिंदू-मुस्लिमों के बीच ऐसी एकता 1857 और फिर 1915 के गदर आंदोलन में देखने को मिली थी. डॉक्टर सत्यपाल और डॉक्टर सैफ़ुद्दीन किचलू (अमृतसर में रहने वाले कश्मीरी) को 10 अप्रैल को धोखे से गिरफ़्तार कर लिया गया. उन्हें डिप्टी कमिश्नर से बातचीत के लिए बुलाया गया था लेकिन वहां पहुंचते ही दोनों को गिरफ़्तार कर पंजाब से बाहर किसी अज्ञात जगह पर भेज दिया गया. इस घटना के बाद लोगों का ग़ुस्सा फूट पड़ा. 11 अप्रैल को एक अंग्रेज़ महिला शेरवुड पर हमला हुआ. कुछ ब्रिटिश अधिकारियों पर भी हमले हुए.
शेरवुड को बचा लिया गया, लेकिन कुछ ब्रिटिश अधिकारी मारे गए. इसके बाद धरना प्रदर्शन शुरू हुआ और भंडारी पुल के पास 25 लोग मारे गए. 13 अप्रैल को इन्हीं घटनाओं के ख़िलाफ़ जलियांवाला बाग़ में एक आम सभा बुलाई गई. इससे एक दिन पहले ही पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर के कहने पर जनरल डायर को जलंधर से अमृतसर भेजा गया. जनरल डायर दल-बल के साथ जलियांवाला बाग़ पहुंचे, जहां से निकलने का एकमात्र रास्ता संकरा था और बिना किसी चेतावनी के निहत्थे आम लोगों पर गोली दाग़ने का आदेश दे दिया.10 मिनट में 1,650 राउंड गोलियां दागी गईं और इस दौरान सैकड़ों ज़िंदा लोग लाश में तब्दील कर दिए गए. जिनके ज़िंदा बचने की उम्मीद थी, उन्हें कोई मेडिकल सुविधा नहीं दी गई. इलाज और प्यास के मारे 13 अप्रैल की रात कई लोगों ने तड़पकर जान दे दी. अगली सुबह लोग जलियांवाला बाग़ पहुंचे और वहां से ज़िंदा और अधमरे लोगों को लादकर बाहर निकाला गया.
भगत सिंह द्वारा लाई गई जलियांवाला बाग़ की रेत
उसके एक दिन बाद भगत सिंह वहां पहुंचे और खून से सनी मिट्टी वो एक शीशी में भर लाए. इसे आज भी भगत सिंह के पैतृक गांव खटकर कलां स्मृति संग्रहालय में संभालकर रखा गया है. सौ साल बाद भी द ट्रिब्यून और अन्य कई अख़बारों में उस त्रासद घटना का विवरण दर्ज है. 15 अप्रैल को पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया और अमृतसर में जहां लेडी शेरवुड पर हमला हुआ और उन्हें बचाया गया वहां पर लोगों को घुटनों के बल रेंगकर चलने का जनरल डायर ने आदेश दिया.
हज़ारों आदमी, औरत, बच्चे और बुज़ुर्ग कई दिनों तक इसी तरह घुटना टेक कर वो गली पार करते रहे. गुजरांवाला, लाहौर समेत कई जगहों पर भारी दमन हुआ. अपनी लेखनी से लोगों को भड़काने वाले कवियों और लेखकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इस पर सुभद्रा कुमारी चौहान, नानक सिंह, फ़िरोज़ दिन शराफ़ समेत कई लेखक-कवियों ने ग़ुस्सा ज़ाहिर किया. उस हौलनाक घटना के दिन उम्र का तीसरा दशक गुजार रहे नानक सिंह भी जलियांवाला बाग़ की बैठक में गए थे और जब गोलियां चलीं तो उन्होंने लाशों के नीचे ख़ुद को दबा लिया. घटना के साल भर बाद उन्होंने ख़ूनी बैशाखी नाम से कविता लिखी जिस पर उस वक़्त प्रतिबंध लगा दिया गया था. अब उनके पोते नवदीप सूरी ने इसका अंग्रेज़ी में भी अनुवाद किया है.
महात्मा गांधी ने 19 अप्रैल को सत्याग्रह वापस ले लिया. टैगोर ने अंग्रेज़ों को नाइटहुड की उपाधि लौटा दी. लोग महीनों तक एक-दूसरे का ग़म बांटते रहे और उस ख़ौफ़नाक याद से कई पीढ़ियां गुज़रीं और आज भी लोगों के ज़ेहन से वो घटना छंटी नहीं है.
उस भीषण त्रासदी के सौ साल होने के मौक़े पर कई सवाल उठते हैं. ऐसी त्रासदियां औपनिवेशिक शासकों का नियम हैं, अपवाद नहीं. चार दशक बाद 1952 से 1959 के बीच में कीनिया के मऊ मऊ आंदोलन में उससे भी बदतरीन ज़ुल्म ढाए गए. मारे गए लोगों की संख्या 11 हज़ार से लेकर 30 लाख तक बताई जाती है. मोटा आकलन 25 हज़ार का है.
जलियांवाला बाग़ में मौत की आधिकारिक संख्या 379 है, लेकिन कांग्रेस की रिपोर्ट में इसे लगभग एक हज़ार बताया गया था. 1960 के दशक में राम सिंह मजीठिया की दो खंडों वाली पंजाबी भाषा की किताब में 460 मृतकों की सूची प्रकाशित की गई. उन्होंने नाम के अलावा हिंदू, सिख और मुस्लिमों का अलग-अलग विवरण दिया, जिनकी उस फायरिंग में मौत हुई थी. बाद में अमृतसर ज़िला प्रशासन ने इस जनसंहार के 500 से ज़्यादा पीड़ितों के नामों की सूची बनाई.
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने घटना के साल भर बाद इसका मुआवज़ा देना शुरू किया, लेकिन या तो सूचना के अभाव में या डर के मारे मुआवज़ा लेने की कई परिवारों की हिम्मत नहीं हुई. ज़्यादातर पचास रूपए से लेकर कुछ हज़ार रुपए तक का मुआवज़ा दिया गया, शायद एक मामले में एक लाख रुपए से ज़्यादा का भुगतान किया गया.
जलियांवाला बाग़ में श्रद्धांजलि अर्पित कर वापस जाते भारत में ब्रिटेन के उच्चायुक्त. ब्रिटेन ने इस कत्ल-ए-आम के लिए आज तक माफी नहीं मांगी है.
लोगों की ज़िंदगी की क़ीमत उनकी हैसियत के आधार पर लगाई गई. मारे गए ग़रीब लोगों को कुछ सौ रुपए दिए गए, जबकि अमीरों को थोड़ा ज़्यादा.
जब बात माफ़ी की आई है तो मौजूदा ब्रिटिश शासकों को डर सताने लगा कि कहीं माफ़ी के साथ मुआवज़े की राशि बढ़ाने की ना मांग होने लगे. और ऐसा क्यों ना हो? कुछ साल पहले, ब्रिटेन की एक अदालत ने ब्रिटिश सरकार को मऊ मऊ आंदोलन में ज़िंदा बचे लोगों या उनके परिजनों को दसियों लाख पाउंड मुआवजा देने का आदेश दिया था. फिर जलियांवाला बाग़ के साथ अलग व्यवहार क्यों? औपनिवेशिक सत्ताधीशों की अगली पीढ़ी को उस भीषण अपराध का मुआवज़ा भरना चाहिए. औपनिवेशिक तंत्र को ब्रिटेन की संसद से स्वीकृति हासिल है, और इसलिए तकाज़े के मुताबिक़ मौजूदा शासकों को ये मुआवज़ा भरना चाहिए. ये उनकी जेब से नहीं भरना है, ये उसी सरकारी तिजोड़ी से भरा जाना है जिसे एशिया और अफ़्रीका के देशों को निचोड़कर ब्रिटेन ने अपने यहां के सत्ताधारी तबके और धन्नासेठों को बुलंद रखने के लिए लबालब भर रखा है. औपनिवेशिक लूट का एक हिस्सा मांगना पूरी तरह न्यायोचित है, जैसा कि दूसरे मामले में ब्रिटेन की अदालत ने फैसला भी सुनाया.
जब बात माफ़ी की आई है तो मौजूदा ब्रिटिश शासकों को डर सताने लगा कि कहीं माफ़ी के साथ मुआवज़े की राशि बढ़ाने की ना मांग होने लगे. और ऐसा क्यों ना हो? कुछ साल पहले, ब्रिटेन की एक अदालत ने ब्रिटिश सरकार को मऊ मऊ आंदोलन में ज़िंदा बचे लोगों या उनके परिजनों को दसियों लाख पाउंड मुआवजा देने का आदेश दिया था. फिर जलियांवाला बाग़ के साथ अलग व्यवहार क्यों? औपनिवेशिक सत्ताधीशों की अगली पीढ़ी को उस भीषण अपराध का मुआवज़ा भरना चाहिए. औपनिवेशिक तंत्र को ब्रिटेन की संसद से स्वीकृति हासिल है, और इसलिए तकाज़े के मुताबिक़ मौजूदा शासकों को ये मुआवज़ा भरना चाहिए. ये उनकी जेब से नहीं भरना है, ये उसी सरकारी तिजोड़ी से भरा जाना है जिसे एशिया और अफ़्रीका के देशों को निचोड़कर ब्रिटेन ने अपने यहां के सत्ताधारी तबके और धन्नासेठों को बुलंद रखने के लिए लबालब भर रखा है. औपनिवेशिक लूट का एक हिस्सा मांगना पूरी तरह न्यायोचित है, जैसा कि दूसरे मामले में ब्रिटेन की अदालत ने फैसला भी सुनाया.
लेकिन क्या भारतीय शासक वर्ग के पास इतनी ताकत है कि वो ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा किए गए अपराध के लिए मुआवज़ा मांग सके? भारतीय शासक वर्ग जलियांवाला बाग के एतिहासिक त्रासदी को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शीर्ष प्रतीक के रूप में ज्यादा महत्व नहीं देता है. नहीं तो ये कैसे हो सकता है कि सौ साल पूरे होने पर राष्ट्रपति वहां श्रद्धांजलि देने तक नहीं जा रहें. शताब्दी समारोह के लिए उपराष्ट्रपति को भेजना इस त्रासदी के महत्व का अनादर है.
यही नहीं, भारतीय शासक वर्ग भी ब्रिटिश औपनिवेशिक लोगों के नक्शे-कदम पर चल रहा है. अमृतसर और जलियांवाला बाग़ में वहां के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए लोगों की आवाजाही पर रोक लगा दी गई है. कई किसान, मज़दूर, छात्र और युवा संगठनों ने जलियांवाला बाग़ स्मारक के लिए मार्च की योजना बनाई थी, जिनपर रोक लगा दी गई. अवाम की त्रासदी को वीआईपी के उत्सव में बदल दिया गया है. और, त्रासदी के सौ साल बाद भी भारतीय शासक वर्ग रौलट एक्ट जैसे दमनकारी क़ानूनों को जारी रखे हुए हैं. ब्रिटिश उपनिवेशवाद को तीन साल के भीतर उस क़ानून को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था. 1922 में रौलेट एक्ट वापस ले लिया गया था, लेकिन अपने यहां अब 'देसी' शासकों द्वारा थोपे गए DIR, MISA, UAPA और AFPSA के बारे में क्या कहा जाए? क्या भगत सिंह का ये सोचना सही नहीं था कि अगर शोषण और उत्पीड़न की व्यवस्था जारी रही तो, लॉर्ड रीडिंग या लॉर्ड इरविन की जगह पर पुरुषोत्तम दास ठक्कर या सर तेज बहादुर सप्रू भी वायसराय बन जाएं, तो भी हालात पर शायद ही कोई फर्क पड़े. कौन कह सकता है कि अंग्रेज़ के जाने के बाद शोषण और उत्पीड़न का ख़ात्मा हो गया है?
इससे बदतर क्या हो सकता है कि सांप्रदायिकता की आग़ अभी भी भड़काई जा रही है. मौजूदा लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार कन्हैया कुमार ने आरोप लगाया है कि 2019 में आरएसएस/बीजेपी रामनवमी के दौरान हिंदू-मुस्लिम दंगा भड़काने की फिराक़ में है! आप याद कीजिए कि 1919 की रामनवमी हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर मनाई थी. उस वक़्त त्योहार के दौरान मुस्लिमों ने हिंदुओं को शरबत पिलाकर भाईचारे की मिसाल क़ायम की थी.
डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्य पाल राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता और भाईचारे के प्रतीक थे और 2019 के तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' द्वारा इसी एकता और भाईचारे को खतरे में डाला जा रहा है!
क्या हमने जलियांवाला बाग़ की उस भीषण त्रासदी से वाक़ई कोई सबक़ ली है!
(चमन लाल जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेंसर हैं. वो भगत सिंह अभिलेखागार और संसाधन केंद्र, दिल्ली के मानद सलाहकार भी हैं.)
No comments:
Post a Comment