भगत सिंह: अद्वितीय व्यक्तित्व
चमन लाल
शब्दों का प्रयोग कई बार आलंकारिक रूप में किसी बात पर ज़ोर देने के लिए किया जाता है। ‘अद्वितीय’ शब्द का प्रयोग भी बहुत बार आलंकारिक रूप में ही किया जाता है। लेकिन भगत सिंह के सन्दर्भ में जब इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है तो यह शब्द के सटीक अर्थों में किया जा रहा है। भगत सिंह का व्यक्तित्व, जिसकी पर्तें उनकी शहादत के 76 वर्ष गुज़र जाने पर भी खुलने की ही प्रक्रिया में है और शायद उनके व्यक्तित्व की पूरी पर्तें खुलने में अभी कुछ और वक्त लगे। लेकिन पिछले करीब दो वर्षों से भगत सिंह के व्यक्तित्व को उनके कृतित्व और कार्य-कलापों के माध्यम से समझने में तेज़ी आई है, जिससे उम्मीद बंधती है कि भारत के इस महान् इतिहास पुरुष का वस्तुगत मूल्यांकन, जो अब कमोबेश सही दिशा में होना शुरू हो गया है, कुछ वर्षों में संपन्न हो सकेगा। यद्यपि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में उनके ऐतिहासिक योगदान को लेकर स्वस्थ वैचारिक आदान-प्रदान चलते रहेंगे, जो अन्य इतिहास पुरुषों के बारे में हर देश और हर समाज में हमेशा बदलते सन्दर्भों में चलते रहते हैं और जिन्हें चलते रहना भी चाहिए।
भगत सिंह के वस्तुगत मूल्यांकन की प्रक्रिया को हम तीन पड़ावों के रूप में पहचान सकते हैं। पहला पड़ाव है - भगत सिंह के जीवन काल के अंतिम अढ़ाई वर्ष और 23 मार्च 1931 को उनकी शहादत के बाद के काफी वर्ष। इस पड़ाव में भगत सिंह ने भारतीय जन मानस में एक अत्यंत लोकप्रिय युवा नायक के रूप में जगह बताई। ‘वीर युवा नायक’ की इस प्रतिमा के स्वतःस्फूर्त रूप में स्थापित होने में 17 दिसंबर 1928 के सांडर्स वध, 8 अप्रैल 1929 के दिल्ली असेंबली के बम विस्फोट, 8 अप्रैल, 1929 और 23 मार्च 1931 के दौरान जेल में लंबी भूख लड़तालें और कचहरियों में मुकदमों के दौरान दिए गए बयानों व कार्यकलापों तथा 23 मार्च 1931 की रात की शहादत व शवों के काट कर जलाने की घटनाओं व इन घटनाओं के भारतीय अखबारों में फोटो सहित विस्तृत विवरण छपने की बड़ी भूमिका है। उस समय भगत सिंह की लोकप्रियता का आलम यह था कि कांगे्रस पार्टी के इतिहास लेखक पट्टाभि सीता रम्मेया को यह स्वीकार करना पड़ा कि ‘पूरे देश में भगत सिंह की लोकप्रियता महात्मा गांधी से किसी तरह भी कम नहीं है’, कहीं कहीं शायद ज्यादा ही हो सकती है। भगत सिंह की यह छवि बनना यहां एक ओर राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की बहुत बड़ी ताकत व पे्ररणास्रोत बना, वहीं इसका नुकसान यह हुआ कि इस छवि के वर्चस्वकारी व अभिभूत करने वाले रूप के नीचे भगत सिंह का ‘क्रांतिकारी बौद्धिक चिंतक’ का रूप पूरी तरह धुंधला पड़ गया। हालांकि जिस तरह का भगत सिंह का लेखन 1928 और 1931 के बीच हिंदी, पंजाबी और अंगे्रजी में छपा, उससे किसी भी देश का बौद्धिक वर्ग उनकी चिंतक प्रतिभा का लोहा मानता और उस पर गर्व करता। भगत सिंह मात्र ‘वीर युवा नायक’ की यह छवि बहुत लंबे अरसे तक चलती रही। इस बीच देश की अनेक भाषाओं में भगत सिंह पर कविताएं, कहानियां, लेख, रेखाचित्र व जीवनियां छपीं, जिनमें से अधिकांश पर पाबंदी भी लगी। इन सब रचनाओं में भी भगत सिंह की इसी छवि को सुदृढ़ किया। 1938 के बाद जब भगत सिंह के नज़दीकी साथी - शिव वर्मा, जयदेव कपूर, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा, भगवान दास माहौर आदि जेलों से रिहा हुए व इनमें से कुछ ने संस्मरण लिखना शुरू किया तो भगत सिंह के व्यक्तित्व की छिपी पर्तें खुलने लगीं। जितेन्द्रनाथ सान्याल कृत भगत सिंह की जीवनी जो 1932 में ही छपी, पर ज़ब्ती व लेखक/प्रकाशक के लिए कैद का फरमान लेकर आई, में भगत सिंह के व्यक्तित्व के बौद्धिक पक्ष की ओर ध्यान ज़रूर आकर्षित किया था, लेकिन यह जीवनी पुनः 1946 में ही छप सकी थी।
भगत सिंह पर 1949 व 1970 के बीच उनके अनेक साथियों के संस्मरण छपे, जिनमें अजय घोष, शिव वर्मा, सोहन सिंह जोश, यशपाल, राजाराम शास्त्री, भगवानदास माहौर, यशपाल आदि के संस्मरण शामिल हैं। इन संस्मरणों में भगत के वैचारिक विकास पर रोशनी पड़ती है। भगत सिंह द्वारा 8 और 9 सितंबर को फिरोजशाह कोटला मैदान दिल्ली में क्रांतिकारी दल को ‘समाजवादी’ दिशा देने, उनकी माक्र्सवाद में गहरी रुचि, उनकी अध्ययनशीलता, उनकी संगठन क्षमता आदि पर काफी विस्तार से वस्तुगत रूप में चर्चा हुई है। भगत सिंह के प्रायः सभी करीबी साथी रिहाई के बाद कम्युनिस्ट पार्टी या आंदोलन में शामिल हो गए थे, शायद इसीलिए अकादमिक जगत ने भगतसिंह के इन साथियों के लिखे भगत सिंह संबंधी संस्मरणों, जिनमें उनके व्यक्तित्व का वस्तुगत रूप समझने में मदद मिलती थी, की उपेक्षा की।
भगत सिंह के व्यक्तित्व को समझने का दूसरा पड़ाव शुरू होता है, प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिन चंद्र द्वारा अपनी भूमिका के साथ ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ व ‘ड्रीमलैंड की भूमिका’ के पुनः प्रकाशन से। ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ अपने मूल अंगे्रजी रूप में भगत सिंह की शहादत के कुछ ही महीने बाद यानी सितंबर 1931 के ‘पीपल’ (लाहौर) साप्ताहिक में छप गया था, लेकिन इसमें निहित गंभीर व गहराई पूर्ण विचारों की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। हालांकि दक्षिण भारत में पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुडई आरसु’ में पी. जीवानंदन से इसका तमिल अनुवाद करवा कर 1933 में ही छाप दिया था, जिसके तमिल में पुस्तिकाकार रूप में 2005 ई. तक 25 से ज्यादा संस्करण निकल चुके थे। बीच में अंगे्रजी में कई वर्षों तक यह लेख अनुपलब्ध रहा और बिपन चंद्र की भूमिका के साथ दोबारा छपने पर पहली बार अकादमिक जगत का ध्यान भगत सिंह की ओर गया। यही वह दौर था, जब सभी भाषाओं विशेषतः हिंदी, पंजाबी व अंगे्रज़ी में भगत सिंह की छिटपुट रचनाओं - पत्रों, लेखों, अदालती बयानों का व्यापक प्रकाशन शुरू हुआ। भगत सिंह की भतीजी वीरेद्र संधू के संपादन में 1977 में हिंदी में भगत सिंह के ‘पत्र और दस्तावेज’ तथा ‘मेरे क्रांतिकारी साथी’ संकलन छपे। पंजाबी में पहले अमरजीत चंदन, फिर जगमोहन सिंह ने दस्तावेजों का प्रकाशन 1980 के आसपास किया। हिंदी में 1986 में जगमोहन सिंह व चमन लाल द्वारा संपादित ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’ लगभग उसी समय तथा हिंदी व अंगे्रज़ी में शिव वर्मा के संपादन में भगत सिंह की चुनी हुई रचनाओं के प्रकाशन के साथ इस प्रक्रिया में तेज़ी आई और प्रायः यह मान लिया गया कि भगत सिंह इस देश के क्रांतिकारी आंदोलन को माक्र्सवादी दृष्टि से संपन्न समाजवादी परिपे्रक्ष्य प्रदान करने वाले मौलिक व पहले प्रभावी चिंतक हैं।
इसी बीच देश की दक्षिण पंथी राजनीतिक शक्तियों ने भी भगत सिंह के भगवाकरण का प्रयास किया। भगत सिंह के परिवार के कुछ सदस्यों की भारतीय जनसंघ पार्टी से निकटता ने भी इसमें योगदान किया। खालिस्तानी आंदोलन के दौरान भगत सिंह को ‘केशरिया रंग व हाथ में पिस्तौल’ की छवि के साथ प्रचारित किया गया। भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों में माक्र्सवादी दिशा का स्पष्ट रूप उभरने पर भारतीय जनसंध के नए अवतार भारतीय जनता पार्टी ने कुछ देर के लिए भगतसिंह के बिंब से खुद को दूर भी रखा।
भगत सिंह के व्यक्तित्व के मूल्यांकन व वस्तुगत रूप से आकलन का तीसरा व अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव 2006 में भगत सिंह की शहादत के पिचहत्तर वर्ष पूरे होने से शुरू होता है। इसी वर्ष पहली बार अंतर्राष्ट्रीय वामपंथी आंदोलन की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘मंथली रिव्यू’ की वेबसाईट पर व पत्रिका के भारतीय संस्करण में पहली बार भगत सिंह पर इस लेखक का लेख छपा, जिसमें भगत सिंह की तुलना लातीनी अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से की गई है। इस लेखक व अन्य अनेक संगठनों द्वारा 28 सितम्बर 2006 से भगतसिंह जन्म शताब्दी मनाने के अभियान में भी इसी बीच तेज़ी आई है। अनेक जन संगठनों ने देश के विभिन्न हिस्सों में भगत सिंह जन्मशताब्दी समारोह समिति’ बना कर भगत सिंह स्मृति कार्यक्रम शुरू किए और भारत सरकार ने भी अंततः 2 मई 2006 के गज़ट नोटिफिकेशन द्वारा भगत सिंह की शहादत के पिचहत्तर वर्ष पूरे होने व उनके जन्म की शताब्दी पूरी होने को पांच राष्ट्रीय जयंतियों में शामिल करने की घोषणा की। अन्य तीन समारोह 1857 की डेढ़ सौंवी जयंती, ‘वन्देमातरम’ की शताब्दी व 1947 की आज़ादी के साठ वर्ष पूरे होने से जुड़े हैं। इन जयंतियों में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम व भगत सिंह की शहादत व जन्म शताब्दी से जुड़े समारोहों में जनता की शमूलियत सबसे ज्यादा देखने में आई। चाहे ये सरकारी समारोह हों या जन संगठनों द्वारा आयोजित समारोह। इस बीच भगत सिंह का और लेखन भी छप कर सामने आता है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण उनकी ‘जेल नोटबुक’ है, जिसका प्रथम प्रकाशन 1994 मंे जयपुर से भूपेन्द्र हूजा के संपादन में हुआ। अंगे्रज़ी की इस नोटबुक के प्रकाशन से भगत सिंह के विचारों संबंधी तमाम धुंधलापन साफ हो जाता है और माक्र्सवाद के उनके गहन अध्ययन व उस विचारधारा से उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से उभर आती है। इसी बीच फिल्म मीडिया में भी भगत सिंह का आकर्षण पुनः आ जागता है। मुंबई में एक साथ पांच पांच फिल्में भगत सिंह पर बनना शुरू हुईं जिनमें तीन ही रिलीज़ हो पाईं, जिनमें एक ‘दी लीजेंड आफ भगतसिंह’ काफी यथार्थ ढंग से भगत सिंह के कार्यकलापों व विचारों को प्रस्तुत करती है। अमीर खान की ‘रंग दे बसंती’ में भगत सिंह प्रासंगिक व सीमित, किंतु तकनीकी स्तर पर प्रभावी रूप में प्रस्तुत किए गए। भगत सिंह को वस्तुगत रूप में समझने के इस तीसरे पड़ाव में अकादमिक क्षेत्र में भी दिलचस्पी बढ़ी। बिपन चंद्र के साथ अब अन्य प्रतिष्ठित इतिहासकार के.एम. पणिक्कर, इरफान हबीब, मुबारक अली (पाकिस्तान), एम.एस. जुनेजा, के.एल. टुटेजा, जगतार सिंह गे्रवाल, इंदु बांगा, सव्यसाची भट्टाचार्य आदि भी गहन रुचि लेने लगे हैं। ‘मेनस्ट्रीम: ‘फ्रंटलाईन’। ‘ई.पी. डब्ल्यू’ जैसी गंमीर व महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने भगत सिंह पर विशेष खंड छापे, जिससे आश्वस्ति होती है कि अब भगत सिंह को ‘अपने अपने राम’ की तर्ज़ पर ‘अपने अपने भगत सिंह’ के रूप में नहीं, वरन् भगत सिंह अपने विचारों व कार्यकलापों के माध्यम से जैसे वस्तुगत रूप में हैं - वैसे भगत सिंह के रूप में सामने आएंगे। इस मूल्यांकन में उनके जीवन व कार्य कलापों से व उनके साथियों के संस्मरणों, या उस काल के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित घटनाओं के विवरणों से ही समझा जा सकेगा, लेकिन उनके व्यक्तित्व के वैचारिक पक्ष का निर्विवाद रूप उनके उपलब्ध लेखन से ही स्पष्ट रूप से उभर सकेगा। इसलिए प्रस्तुत संकलन में भगत सिंह के उपलब्ध संपूर्ण लेखन को कालक्रम से एक ही खंड में रखा जा रहा है ताकि पाठक और अकादमिक क्षेत्र के विद्वान ऐतिहासिक दृष्टि से भगत सिंह के व्यक्तित्व को उनके कृतित्व के माध्यम से समझ सकें। भगत सिंह का जीवन साढ़े तेईस वर्ष से भी कम का था और उनका राजनीतिक-सामाजिक जीवन करीब आठ वर्ष का था। लेकिन यह आठ वर्ष बहुत से इतिहास पुरुषों के अस्सी वर्ष से भी अधिक गरिष्ठ व महत्त्वपूर्ण हैं। विशेषतः भगत सिंह का बौद्धिक-वैचारिक विकास इन आठ वर्षों में जिस तूफानी गति, लेकिन जितनी समझदारी से हुआ है, वह भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में दुर्लभ है। इतनी छोटी उम्र में इस उच्च स्तर के बौद्धिक वैचारिक विकास की समूचे रूप में तुलना या तो लगभग इतनी ही उम्र जिए क्रांतिपूर्व रूसी दार्शनिक दोबरोल्यूबोव से की जा सकती है, जिन्होंने 24 वर्ष की अल्प आयु में अपने लेखन में जिन दार्शनिक गहराईयों का परिचय दिया है, वह विश्व भर की दार्शनिक परंपरा में दुर्लभ है या लातीनी अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से, जिनका जीवन व लेखन भी भगत सिंह के जीवन और लेखन से काफी समानता रखता है, हालांकि चे ग्वेरा को भगत सिंह से करीब चैदह वर्ष अधिक जीने का अवसर मिला। अतः उनके क्रांतिकारी आंदोलन के अनुभव भी अधिक रहे। एक स्तर पर 17 से 23 वर्ष के बीच माक्र्स के लेखन व इसी उम्र के भगत सिंह के लेखन के बीच तुलना की जाए तो आश्चर्यजनक रूप से एक जैसी बौद्धिक गुणवत्ता देखी जा सकती है, हालांकि माक्र्स को जिस उच्च स्तर की बौद्धिक संस्कृति यूरोप में प्राप्त थी, उसका दशांश भी भारत में भगत सिंह को प्राप्त नहीं था। यहां सीमित अर्थों में भगत सिंह की बौद्धिक प्रतिभा की गुणवत्ता (फनंसपजल) और दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व की प्रतिभा, दृढ़ता व लगन (प्दजमहतपजल) में ही चे ग्वेरा या माक्र्स से उनकी तुलना की जा रही है, नाकि व्यापक अर्थों में। क्योंकि व्यापक अर्थों में हर इतिहास पुरुष को अलग देश और अलग समाज में भिन्न परिस्थितियां मिलती हैं और वे परिस्थितियां ही हैं, जो किसी व्यक्ति या व्यक्तित्व को इतिहास पुरुष या इतिहास स्त्री की शक्ल देती हैं। माक्र्स और भगत सिंह दोनों ने ही अलग अलग सन्दर्भों में यही बात कही है कि यह परिस्थितियां ही थीं, जिन्होंने समाज को ठीक से समझने में किसी को जर्मनी के ‘माक्र्स’ बताया और उसी तरह भारत में ‘भगत सिंह’। ये नाम कुछ और भी हो सकते थे, किंतु इनकी नियामक शक्ति परिस्थितियां ही रहतीं। इस व्यापक परिपे्रक्ष्य में देखने पर माक्र्स, भगत सिंह और चे ग्वेरा एक ही परंपरा के अंग नज़र आएंगे। माक्र्स एक पूर्वज के रूप में और भगत सिंह और चे ग्वेरा उनके मार्ग के गंभीर अध्येता और उन पर पूरी ईमानदारी से चलने वाले सक्रिय कार्यकर्ता व साथ ही चिंतक रूप में। भगत सिंह का वैचारिक रूप तो संकलन में प्रस्तुत उनके लेखन से स्पष्ट हो ही जाएगा, यहां उनके जीवन व कार्य कलापों को एक सरसरी नज़र से देखना उचित होगा ताकि उनके जीवन व विचारों के सामंजस्य को भी ठीक से समझा जा सके।
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को चक्क नं. 105, बंगे, ज़िला लायलपुर (अब फैसलाबाद/पाकिस्तान) में हुआ। जिस परिवार में भगतसिंह का जन्म हुआ, उसके पुरखों का स्वतंत्रता की भावना के प्रति प्रतिबद्धता का लंबा इतिहास है। पहले लाहौर और अब अमृतसर ज़िले का नारली गांव इस परिवार का पैतृक गांव है, जहां से एक दौर में परिवार का मुखिया घर जमाई बन कर खटकड़ कलां (ज़िला नवाशहर) में आकर बसा। खटकड़ कलां से ही परिवार ने लायलपुर ज़िले में ज़रखेज़ ज़मीनें खरीदी व आमों का 17 एकड़ का बाग लगाया। फतह सिंह और खेम सिंह संधू आदि पूर्वजों के बाद भगत सिंह के दादा अर्जुन सिंह की राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रियता रही। अर्जुन सिंह सिख परंपरा के साथ साथ आर्य समाज में भी आस्था रखते थे, जो एक अन्तर्विरोधी स्थिति थी। अर्जुन सिंह रूढ़ियों के खिलाफ थे, संस्कृत के समर्थक तथा घर में हवन करते थे। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों - किशन सिंह और अजीत सिंह को साईंदास स्कूल जालंधर में शिक्षा दिलवाई। स्वर्ण सिंह सहित उनके तीनों पुत्र राष्ट्रीय आंदोलन में अत्यधिक सक्रिय थे। स्वर्ण सिंह की तो जेल की यातनाओं के कारण करीब 23 वर्ष की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी। अजीत सिंह 1909 में देश से जो निर्वासित हुए तो 1947 में देश की स्वतंत्रता के कुछ महीने पूर्व ही भारत लौट सके। किशन सिंह ने भी कांगे्रस कार्यकर्ता के रूप में अनेक बार जेल यात्रा की। इन तीनों भाईयों में अजीत सिंह सर्वाधिक सक्रिय थे। वे लाला लाजपत राय के साथ ‘भारत माता सोसायटी’ या ‘अंजुमन मुहब्बताने-वतन’ के ज़रिए पंजाब के किसानों को संगठित कर रहे थे। 1907 के काल में पंजाब के किसानों की बड़ी दुरवस्था थी, वे कर्ज़े में डूबे हुए थे। अजीत सिंह गांव गांव जाकर उन्हें जागृत व संगठित कर रहे थे। इसी जागृति के क्रम में 1907 में ही लाला बांकेदयाल कृत प्रसिद्ध गीत - ‘पंगडी संभाल जट्टा’ की रचना हुई। इस गीत की रचना के कारण बांकेदयाल की पुलिस की नौकरी भी गई व दो साल की जेल भी उन्हें हुई। संयोग से जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ, उसी दिन तीनों देशभक्त भाईयों - किशन सिंह, अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह की जेल से रिहाई हुई। दादी जयकौर ने नव शिशु को ‘‘भागों वाला’ (भाग्यवान) कहा तो उसका नाम ही भगत सिंह रख दिया गया। भगत सिंह अपने माता-पिता - विद्यावती और किशन सिंह की दूसरी संतान थे। उनकी पहली संतान का नाम जगत सिंह था, जो 1904 मंे पैदा होकर 1915 में छोटी आयु में चल बसा था। भगत सिंह नौ बहन भाईयों में दूसरे स्थान पर पैदा हुए। उनके बाद अमर कौर, कुलबीर सिंह, कुलतार सिंह, सुमित्रा उर्फ प्रकाश कौर (जीवित), शकुंतला, रणवीर सिंह व राजिन्द्र सिंह पैदा हुए। भगत सिंह की बहिन प्रकाश कौर इन दिनों कनाडा में अपने परिवार के साथ रह रही हैं, बाकी सभी बहिन भाईयों का देहांत हो चुका है।
भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने लाहौर में भी बीमा एजेंसी का काम शुरू कर लिया था। प्राइमरी शिक्षा के लिए बड़े भाई जगत सिंह के साथ भगत सिंह को भी गांव के नज़दीक के स्कूल में दाखिल करवाया गया। भगत सिंह अभी दो ही साल के थे कि उनके चाचा अजीत सिंह को देश से निर्वासित होना पड़ा। अजीत सिंह से भगत सिंह का मिलना तो न हो सका, लेकिन कुछ पत्र व्यवहार उनमें ज़रूर हो सका थां दोनों एक दूसरे के बहुत नज़दीक थे। अजीत सिंह की पत्नी हरनाम कौर से भगत सिंह का संबंध मां-बेटे का था। भगत सिंह के नज़दीकी दोस्त व स्कूल के सहपाठी जयदेव गुप्त के अनुसार तो भगत सिंह को हरनाम कौर को ही बेटे के रूप में सौंप दिया गया था। भगत सिंह अभी तीन ही वर्ष के हुए तो उनके छोटे चाचा स्वर्ण सिंह का जेल मे मिले यक्ष्मा रोग के कारण देहांत हो गया। छोटी चाची हुक्म कौर निस्संतान ही विधवा हुईं। इस चाची से भी भगत सिंह का बहुत स्नेह था। बचपन में चाची हुक्म कौर को भगत सिंह ने पंजाबी सीख कर पत्र लिखे थे। उनकी बड़ी चाची बुल्लेशाह के सूफी रंग में रंगे कसूर शहर से थी। और उस सूफी रंग का भी उस पर असर था। मेहता आनंद किशोर कांगे्रस के कार्यकर्ता व किशन सिंह के नज़दीकी मित्र थे। उनसे मिलने गांव भी आते थे। एक बार ऐसे ही गांव के खेतों में घूमते चार वर्ष के भगत सिंह को खेत में कुछ बीजते देख मेहता जी ने हंसी में पूछा कि ‘भगत सिंह तुम खेत में क्या बो रहे हो ?’ तो शिशु भगत सिंह ने उत्तर में कहा था कि ‘बंदूके बीज रहा हूं’। ‘मगर क्यों ?’ हैरान होकर मेहता जी ने पूछा था। ‘ताकि बड़ा होकर उनकी फसल से अंगे्रज़ों की कैद से देश आज़ाद करवा सकूं व चाचा जी (अजीत सिंह) को वापिस ला सकूँ।’ शिशु मन का मेहता जी को उत्तर था। भगत सिंह सात वर्ष के हुए तो गदर पार्टी ने पंजाब में गदर की तैयारी शुरू कर दी थी। शचिन्द्रनाथ सान्याल भी मेहता जी के साथ किशन सिंह से मिलने आते थे। शायद एकाध बार कर्तार सिंह सराभा भी आए। किशन सिंह ने गदर पार्टी को एक हज़ार रुपए चंदा दिया। उन दिनों यह रकम बहुत बड़ी रकम थी, आज के पचास हज़ार से कहीं ज्यादा। किशन सिंह के मित्र मेहता आनंद किशोर प्रथम लाहौर षड्यंत्र केस के प्रथम अभियुक्त थे और यह मुकदमा ‘मेहता आनंद किशोर बनाम बादशाह’ ही लड़ा गया था। मेहता आनंद किशोर तो सबूतों के अभाव में बरी हो गए थे, लेकिन 20 साल के कर्तार सिंह सराभा को छह साथियों, जिनमें बिष्णु गणेश पिंगले भी थे, के साथ फांसी हुई थी। यह कर्तार सिंह सराभा बाद के जीवन में भगत सिंह के आदर्श नायक बने, जिनका चित्र वे हमेशा जेब में रखते थे। इस मुकदमें के फैसले में ही जज ने किशन सिंह द्वारा गदर पार्टी को एक हज़ार रुपए चंदा देने की बात दर्ज की थी।
प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हुए ही भगत सिंह ने घर पर रखी अजीत सिंह, सूफी अंबा प्रसाद व लाला हरदयाल की लिखी कई पुस्तक-पुस्तिकाएं पढ़ डालीं। पुराने व ताजे अखबार भी वे घर पर पढ़ते रहते थे। प्राइमरी शिक्षा गांव में समाप्त कर वे आगे की पढ़ाई के लिए वे पिता के पास नवांकोट, लाहौर चले गए। वहां उन्हें डी.ए.वी. स्कूल में भर्ती करवाया गया। लाहौर से जब वे स्कूल के विद्यार्थी थे तो 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में अंगे्रज़ों ने भारतीयों का कत्लेआम किया। भगत सिंह के मन पर गहरी चोट लगीं एक दिन के स्कूल न जाकर लाहौर से सीधे अमृतसर चले गए, जो मुश्किल से 30-32 किलोमीटर की दूरी पर था। घर देर से पहुंचे तो पूछने पर बताया कि वे जलियांवाला बाग से देशभक्तों के खून से सनी मिट्टी को वे एक शीशी में भर कर लाए हैं। बाद में इस शीशी को बहुत समय तक घर में फूल चढ़ाए जाते रहे। 1921 में 20 फरवरी को ननकाना साहिब गुरुद्वारा में भ्रष्ट महन्त ने अंगे्रज़ों की सहायता से डेढ़ सौ के करीब श्रद्धालु सिखों को शहीद कर दिया तो भगत सिंह ने उस समय पंजाबी भाषा और गुरुमुखी लिपि सीखी, जो स्कूलों में नहीं पढ़ाई जाती थी। अकाली जत्थे का गांव में स्वागत सत्कार भी किया तथा जडांवाला के सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ननकाना साहिब भी गए। फरवरी 1922 में जब चैरा चैरी की घटना को लेकर महात्मा गांधी ने अपना सत्याग्रह वापिस ले लिया तो भगत सिंह को बहुत चोट लगी और उन्होंने अपने पिता और कांगे्रसी कार्यकर्ता किशन सिंह से अपनी कड़ी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की।
इस बीच लाला लाजपत राय ने लाहौर में नेशनल कालेज और द्वारका दास लायबे्ररी की स्थापना की। देश के अन्य अनेक नगरों/कस्बों में भी कांगे्रस की नीति के अनुसार अनेक नेशनल कालेज/स्कूल/विश्वविद्यालय खोले जा रहे थे। बिलायत से लौटे आचार्य जुगल किशोर काॅलेज के प्रथम प्रिंसीपल बने। भाई परमानंद, जयचन्द्र विद्यालंकार व छबीलदास जैसे स्वाधीनता सेनानी तथा विद्वान कालेज के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रोफेसर थे। प्रिंसीपल छबील दास कालेज के दूसरे प्रिंसीपल भी बने। राजा राम शास्त्री द्वारका दास लायबे्ररी के इंचार्ज थे। जयचन्द्र विद्यालंकार के घर भगत सिंह की भेंट गदर पार्टी से जुड़े रहे शचिन्द्रनाथ सान्याल से होती रहती थी।
भगत सिंह का काॅलेज में प्रवेश भी दिलचस्प था। उन्होंने डी.ए.वी. स्कूल से सिर्फ़ नवीं श्रेणी पास की थी। प्रवेश परीक्षा लेकर उन्हें सीधे एफ.ए. में दाखिल किया गया। भगत सिंह ने 1923 में एफ.ए. की परीक्षा सोलह वर्ष की उम्र मं पास कर ली थी व बी.ए. में दाखिल हुए। तभी परिवार ने उन पर विवाह करवाने का दबाव डाला, विशेषतः दादी जय कौर द्वारा जिनके मन में पोते के प्रति बहुत लाड़ था। संभवतः मानांवाला गांव का एक समृद्ध परिवार भगत सिंह को देखने आया और सगाई के लिए तारीख भी निश्चित कर दी गई। यहीं से भगत सिंह के जीवन में एक तीखा मोड़ आया। उन्होंने घर बार व पढ़ाई छोड़ पूरी तरह क्रांतिकारी आंदोलन को जीवन समर्पित करने का निर्णय लिया और पिता को यह पत्र लिख कर उसका जीवन ‘देश के लिए समर्पित’ है, वे घर छोड़ कर चले गए। घर छोड़ते समय वे जयचंद्र विद्यालंकार से ‘प्रताप’ (कानपुर) के संपादक व मुक्त प्रांत के कांगे्रस पार्टी अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम एक परिचय पत्र लेकर।
भगत सिंह कानपुर पहुंचे और शचिन्द्रनाथ सान्याल रचित ‘बन्दी जीवन’ के अनुसार वे मन्नीलाल अवस्थी के मकान पर टिकाए गए। कानपुर में क्रांतिकारी दल का काम योगेश चंद्र चटर्जी देख रहे थे। कानपुर में ही उनका परिचय सुरेशचंद्र भट्टाचार्य, बटुकेश्वर दल, अजय घोष व विजय कुमार सिन्हा जैसे क्रांतिकारियों से हुआ। पुलिस के शक से बचाने के लिए विद्यार्थी जी ने भगत सिंह को ‘प्रताप’ कार्यालय में संपादन विभाग में काम दिया, जहां वे ‘बलवंत’ के छद्म नाम से लिखते भी थे। कुछ दिन उन्होंने कानपुर में अखबार भी बेचे। इस बीच कुछ समय तक विद्यार्थी जी ने उन्हें अलीगढ़ के पास शादीपुर गांव में नेशनल स्कूल का हेडमास्टर बनवा कर भिजवा दिया था। वहां वे कांगे्रसी कार्यकर्ता ठाकुर टोडर सिंह (बाद में उ.प्र. विधान सभा के सदस्य रहे) के घर रहे। स्कूल का काम भी टोडर सिंह ही देखते थे। थोड़े ही दिनों में भगत सिंह ने उक्त क्षेत्र में स्कूल का नाम चमका दिया था। इस बीच कानपुर क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्रों में बाढ़ आने पर भगत सिंह ने बाढ़ राहत कार्यो में भी बटुकेश्वर दत्त के साथ हिस्सा लिया था।
इस बीच घर वाले परेशान थे कि भगत सिंह कहां चले गए। भगत सिंह ने अपने मित्र रामचन्द्र को ख़त लिखा, परन्तु घर वालों को पता न बताने का आग्रह किया था। भगत सिंह के नज़दीकी मित्र जयदेव गुप्त से रामचन्द्र की चर्चा चली। इस बीच भगत सिंह की दादी पोते के गम में सख्त बीमार पड़ गईं तो जयचन्द्र गुप्त आग्रह कर रामचंद्र को साथ लेकर भगत सिंह के ठिकाने पर पहुंचे। भगत सिंह उनसे नहीं मिले तो वे विद्यार्थी जी से मिले। इस बीच लाला लाजपत राय के अखबार ‘बंदे मातरम’ में पिता किशन सिंह ने भगत सिंह को घर लौट आने के आग्रह का विज्ञापन भी छपवाया, जिसे विद्यार्थी जी ने भी पढ़ा था। लेकिन विद्यार्थी जी को भी भगत सिंह की असलियत का पता नहीं था। जयदेव गुप्त व रामचंद्र ने लौट कर किशन सिंह को स्थिति बताई तो किशन सिंह ने अपने मित्र व कानपुर के कांगे्रस नेता हसरत मोहानी को पत्र लिखा और भगत सिंह को विवाह का आग्रह न करने का आश्वासन दिया, तब कई महीने बाद भगत सिंह घर लौटे। घर लौट कर दादी की खूब सेवा की और उन्हें स्वस्थ कर दिया।
भगत सिंह इस बीच हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए.) नाम के क्रांतिकारी संगठन के अभिन्न अंग बन गए थे, जिसकी स्थापना में शचिन्द्रनाथ सान्याल का बड़ा योगदान था। इसी संगठन में चन्द्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल, असककुल्ला, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी, योगेश चटर्जी, सुरेश भट्टाचार्य आदि साथी शामिल थे। इसी संगठन ने 1925 में ‘दी रेवोल्युशनरी’ नाम का पर्चा निकाला और 9 अगस्त 1925 को काकोरी रेल डकैती का ऐक्शन किया। इस ऐक्शन के ज्यादातर कार्यकर्ता पकड़े गए थे, जिनमें से बिस्मिल, अशफाक, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को दिसंबर 1927 में फांसी दे दी गई थी। भगत सिंह संभवतः उस वक्त सरकार के नोटिस में नहीं आए थे। चन्द्रशेखर आज़ाद उस समय भी और जीवन के अंत तक सरकार के हाथ नहीं आए थे।
1924 में कुछ अर्सा भगतसिंह लाहौर या गांव चक्क नं. 105, बंगा मंे रहते रहे। इस बीच जैतो मोर्चे में जा रहे अकाली जत्थे का भी उन्होंने गांव में स्वागत सत्कार किया, जिसकी रिपोर्ट उनके रिश्ते के चाचा दिलबाग सिंह ने सरकार को दी थी। दिलबाग सिंह मजिस्टेªट थे और ब्रिटिश सरकार के समर्थक थे। इस बीच लाहौर में वे युवाओं को संगठित भी कर रहे थे। लाहौर में लाला लाजपत राय, जिनके साथ उनके घनिष्ट पारिवारिक संबंध थे व जिनके नेशनल कालेज से भगत सिंह ने दो वर्ष शिक्षा भी प्राप्त की, से उनकी राजनीतिक टक्कर भी हुई। लाला लाजपत राय और भाई परमानंद अपनी पुरानी गदर पार्टी पृष्ठभूमि के बावजूद हिंदुत्ववादी विचारों से प्रभावित होकर सांप्रदायिक राजनीति करने लगे थे। भगत सिंह और अन्य नौजवानों ने इनका विरोध किया और कौंसिल चुनावों में कांगे्रस पार्टी के दीवान चमन लाल को समर्थन दिया। बाद में दीवान चमन लाल ने जब असेंबली बमकांड की निंदा की थी तो भगत सिंह व उनके साथियों ने उन्हें ‘छद्म समाजवादी’ का दर्जा दिया था।
कुछ समय तक भगत सिंह ने दिल्ली में दैनिक ‘अर्जुन’ के संपादकीय विभाग में भी बलवंत के ही छद्म नाम से काम किया। इस बार वे घर से भाग कर नहीं, वरन् क्रांतिकारी दल की ज़रूरतों के अनुसार यह काम करते थे।
1925 में भी भगत सिंह अत्यंत सक्रिय रहें इस वर्ष उन्होंने ‘नौजवान भारत सभा’ की सरगर्मियों में लाहौर में हिस्सा लिया तो कानुपर जाकर एच.आर.ए. की गतिविधियों में भी हिस्सा लिया। कानुपर में वे शिव वर्मा और जयदेव कपूर के साथ डी.ए.वी. काॅलेज के होस्टल में रहे। उस समय उनका पार्टी नाम ‘रणजीत’ था। ‘शिव वर्मा और जयदेव कपूर दोनों ने ही अपने संस्मरणों व साक्षात्कारों में इस बीच भगत सिंह के व्यक्तित्व की विस्तार से चर्चा की है। भगवान दास माहौर ने भी अपने संस्मरणों में भगत सिंह की पढ़ने की ज़बरदस्त ललक की चर्चा की है। उन्होंने तो यहां तक लिखा है कि भगत सिंह ने उन्हें कार्ल माक्र्स के विश्व प्रसिद्ध क्लासिक ग्रंथ ‘दास कैपिटल’ की प्रति बढ़ने के लिए दी थी, जो ज़ाहिर है कि समझनी बहुत मुश्किल थी।
भगत सिंह के अध्ययन की लगन की चर्चा उनके हर साथी ने की है। अनेक साथियों ने तो उन खास किताबों की भी चर्चा की है, जो भगत सिंह समय समय पर पढ़ते रहते थे। इन किताबों में साहित्य भी था, राजनीति भी और इतिहास भी। उनके प्रिय अध्यापक और पिं्रसीपल छबीलदास ने भगत सिंह की सबसे ज्यादा पसंद किताबों मंे उपन्यास ‘क्राइ फार जस्टिस’ (ब्तल वित श्रनेजपबम) को शामिल किया है। इसके अलावा दो और किताबों में उन्होंने भगत सिंह की प्रिय किताबों में गिनवाया है - डान ब्रीन की ‘माई फाइट फार आयरिश फ्रीडम’, जिसका भगत सिंह ने हिंदी में अनुवाद भी किया था तथा ‘हीरोज एंड हीरोइनज़ आफ रशिया’। रूस की नायिकाओं में भगत सिंह को वेरा किग्नर से प्रभावित थे। द्वारका दास लायबे्ररी के इंचार्ज व भगत सिंह के मित्र राजाराम शास्त्री के अनुसार भगत सिंह को वीर सावरकर की पुस्तक ‘भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ ने काफी प्रभावित किया था। उनके अनुसार भगत सिंह ने बाकुनिन की किताब ‘ईश्वर और राज्य’ (ळवक ंदक जीम ैजंजम) का बहुत अच्छी तरह अध्ययन किया है। इस किताब ने उन्हें नास्तिक बनने की पे्ररणा दी थी। डान ब्रीन की किताब को राजाराम ने भी भगत सिंह की प्रिय पुस्तक कहा है, साथ ही ‘इटली की क्रांति’, ‘मेजिनी और गैरीबाल्डी की जीवनियां तथा उनके विचार’ के साथ ‘क्राइ फार जस्टिस’ का जिक्र शास्त्री जी ने भी किया है। राजाराम शास्त्री ने एक और किताब ‘अराजकतावाद और अन्य निबंध’ (।दंतबीपेउ ंदक वजीमत म्ेेंले) का ज़िक्र किया है। इस किताब का एक अध्याय था ‘हिंसा का मनोविज्ञान’ (ज्ीम चेलबीवसवहल व िटपवसमदबम) इसी अध्याय में फ्रेंच क्रांतिकारी वेलियां (टंससपंदज) का वह प्रसिद्ध बयान छपा था - ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ज़रूरत होती है।’ वेलियां ने यह बयान फ्रांस की संसद में 1893 में बम फेंक कर धमाका करते हुए दिया था। वेलियां को भी जनता के पुरज़ोर विरोध के बावजूद 1894 ई. में फांसी दे दी गई थी। 36/38 साल बाद वैसी ही घटना दिल्ली व लाहौर में दोहराई गई। ‘हीरोज़ एंड हीरोइन्ज आफ रशिया’ की चर्चा भी राजाराम ने की है। इसके साथ जिन उपन्यासों का उन्होंने ज़िक्र कियसा है, वे हैं - गोर्की का ‘मदर: विक्टर ह्यूगो के ‘नायनटी थ्री’ (93) और ‘ला मिज़रेब्लस’; टेल आफ टू सिटीज़ (डिकेंस), ‘इटरनल सिटी’, अपान सिंक्लेयर के उपन्यास - ‘जंगल’, ‘बोस्टन’ व ‘किंग कोल’ राजाराम के अनुसार भगत सिंह ने बम बनाने का नुस्खा - ‘एनसाईक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ से खोजा था।
शिव वर्मा के अनुसार ‘मुझे एक भी अवसर याद नहीं’ पड़ता, जब मैंने उसके पास कोई न कोई पुस्तक न देखी हों। शिव वर्मा ने ह्यूगो के उपन्यास ‘93’ पर सुखदेव और भगतसिंह के बीच हुए विवाद का ज़िक्र किया है, जिसमें एक क्रांतिकारी पहले तो पार्टी के प्रति किए अपराध के लिए अपने घनिष्टतम मित्र को मृत्युदंड देता है, फिर उसकी मृत्यु के साथ ही खुद भी आत्महत्या कर लेता है। भगत सिंह की हमदर्दी आत्महत्या करने वाले चरित्र के साथ है, जबकि सुखदेव आत्महत्या करने वाले पात्र के प्रति अत्यंत कठोर है। बाद में जब सुखदेव जेल में लंबी सज़ा की आशंका में खुद आत्महत्या की बात सोचता है तो भगत सिंह उसे कठोरता से उसकी अपनी अवधारणा को याद दिला कर उसकी आत्महत्या करने की भावना की कठोर आलोचना करते हैं। जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह द्वारा पढ़ी पुस्तकों में वे डिकेन्स, सिन्क्लेयर, हालकेन, ह्यूगो, गोर्की, स्टेपनिक, आस्कर वाईल्ड व एण्ड्रीव के उपन्यासों का ज़िक्र करते हैं। विशेषतः लियोनाइड एण्ड्रीव के प्रसिद्ध उपन्यास ‘सेवन दैट वर हैण्ग्ड’ (ैमअमद जींज ूमतम भ्ंदहमक) की चर्चा करते हैं। शिव वर्मा ने भगत सिंह के उच्च कोटि के सौन्दर्य बोध, संगीत के शौक, तैरने, नौका विहार का तथा पूरी पूरी रात नदी तट पर मित्रों के साथ चर्चा करते रहने की रुचि को भी रेखांकित किया है।
भगत सिंह के प्रथम जीवनी लेखक जितेन्द्रनाथ सान्याल ने भी ‘ैमअमद जींज ूमतम भ्ंदहमक’ के भगत सिंह द्वारा जेल में किए जाने वाले पाठ की चर्चा के बाद सिंक्लेयर के ‘जंगल’, ‘बोस्टन’, ‘आयल’ उपन्यासों के साथ ‘क्राइ फार जस्टिस’ (गद्य), हाल केन की रचना ‘इटरनल सिटी’, जिसके अनेक भाषण भगत सिंह को ज़बानी याद थे, की चर्चा की है। जान रीड का रूसी क्रांति का प्रत्यक्षदर्शी विवरण ‘दस दिन जिन्होंने दुनिया बदल दी’ (ज्मद क्ंले जींज ैीववा जीम ूंतसक) रोपशिक की ‘जो कभी नहीं घटा’ (ॅींज दमअमत ीतचचमदक) गोर्की की ‘मदर स्तेपनाक की कैरियर आफ ए निहिलिस्ट’ (ब्ंततमत व िं छपीपसपेज), उनकी ‘रूसी जनतंत्र का जन्म (ठपतजी व ित्नेेपंद क्मउवबतमल) को भी रूस के क्रांतिकारी इतिहास की आरंभिक पुस्तकों में सर्वश्रेष्ठ मानते थे। आस्कर वईल्ड की -वेरा, दी निहिलिस्ट’ प्रिंस क्रोपाटिकन के ‘मेमायर्ज़’ का भी ज़िक्र किया है। भगवान दास माहौर ने उन्हें भगत सिंह द्वारा बाकुनिन की ‘ईश्वर और राज्य’ तथा माक्र्स की ‘दास कैपिटल’ पुस्तकें पढ़ने के लिए दिए जाने का उल्लेख किया है।
सुखदेव के भाई मथुरादास थापर के अनुसार ‘सुखदेव और भगत सिंह कभी कभी काॅलेज से सीधे कमरे पर चले आते और देर तक कूका विद्रोह, गदर पार्टी, कर्तार सिंह सराभा, सूफी अंबा प्रसाद तथा बब्बर अकालियों के साहसपूर्ण कारनामों के वर्णन प्रति वर्णन में उलझे रहते। गोर्की, माक्र्स, उमरखैय्याम, एंजिल्स, आस्कर वाइल्ड, बर्नाड शा, चाल्र्स डिकेन्स, विक्टर ह्यूगो, टाल्स्टाय और दास्तोवस्की जैसे महान् चिंतकों और लेखकों पर वह घंटों सिर जोड़े चर्चा करते रहते।’ (मेरे भाई सुखदेव) ‘अराजकतावाद व अन्य निबंध’ पुस्तक संबंधी मथुरादास ने बताया है कि भगत सिंह उससे बहुत प्रभावित थे और सुखदेव के साथ उस पुस्तक पर महीनों उलझे रहे थे।
भगत सिंह के घनिष्ठ बालसखा जयदेव गुप्त ने भगत सिंह द्वारा पढ़ी या जेल में मंगवाई जिन पुस्तकों का उल्लेख किया है, उनमें ह्यूगो का उपन्यास ‘93’, डी.एल. राय का नाटक ‘मेवाड़ पतन’, शचिन्द्रनाथ सान्याल का ‘बंदी जीवन’, गोर्की की ‘माँ’, डयूमा का ‘थ्री मुस्कटीयर्ज’ (ज्ीतमम डनेाममजमते) ‘हीरोज़ एंड हीरोइनज़ आफ रशिया’, रविन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘एकला चलो रे’ भी शामिल है। हाल केन, ह्यूगो आदि की पुस्तकों का जिक्र उन्होंने भी किया है। इन पुस्तकों में ‘बन्दी जीवन’ का भगत सिंह द्वारा किए पंजाबी अनुवाद व उसके ‘किरती; में धारावाहिक छपने का उल्लेख भी मिलता है। नेशनल काॅलेज लाहौर में पढ़ते समय ड्रामाटिक क्लब के सदस्य रूप में भगत सिंह ने ‘मेवाड़ पतन’ में महाराणा प्रताप की भूमिका निभाई, जिसे सरोजिनी नायडू ने देखा व भगत सिंह की प्रशंसा की। ‘भारत दुर्दशा’, सम्राट चन्द्रगुप्त आदि नाटकों में भी भगत सिंह द्वारा भूमिका निभाने के उल्लेख मिलते हैं। जयदेव गुप्त के एक पत्र में भगत सिंह 13 किताबें मंगवाने का उल्लेख है तो भगत सिंह की जेल नोटबुक में कम से कम 43 लेखकों व 108 पुस्तकों के नोट्स दर्ज हैं। सहारनपुर बम फैक्ट्री से जो 125 पुस्तकें/प्रकाशन आदि पकड़े गए उनमें भी ‘गांधी बनाम लेनिन’, प्रसाद कृत ‘आंसू’, टाल्स्टाय की कृतियां, ‘बंदी जीवन, ‘साम्राज्यवाद’ आदि पुस्तकें बरामद हुई थीं।
भगत सिंह के एक अन्य करीबी साथी जयदेव कपूर के अनुसार भगत सिंह डान ब्रीन, क्रोपाटिकन के ‘युवाओं के नाम अपील’, ‘रोल्ट रिपोर्ट, ‘मैजिनी का जीवन’ (ज्ीम स्पमि व िडं्र्रपदप) गैरीबाल्डी और इटली का नवनिर्माण’, ‘लेनिन की जीवनी’, ‘रूस की राज्यक्रांति’ आदि पुस्तकों से प्रभावित हुए।
साहित्य की अभिरुचि के अतिरिक्त फिल्मों के शौक संबंधी उनके साथियों ने अनेक घटनाओं का वर्णन किया है। ‘अंकल टामस केबिन’, ‘विंग्स’ ‘अनारकली’ व चार्ली चेप्लिन की फिल्में भगत सिंह द्वारा देखे जाने के उल्लेख मिलते हैं। जयदेव कपूर के अनुसार उन्होंने सुलोचना वाली ‘अनारकली’ फिल्म भगत सिंह के साथ देखी, जयदेव कपूर के अनुसार भगत सिंह दूसरे दिन फिर उसी फिल्म को देखने गए। फिल्म देखने के लिए वे खाना भी छोड़ देते थे और टिकट लेने के लिए भीड़ की धक्कामुक्क्ी का सामना भी कर लेते थे।
भगत सिंह पांच फुट दस इंच के खूबसूरत जवान थे, उनको गाने का भी शौक था और वे खूब अच्छा गाते भी थे। अच्छा खाने का भी उन्हें शौक था। रसगुल्ला, बर्फी, दूध, घी, केक व मीट उनके प्रिय भोज्य थे। एक बार तो वे ग्वाले को एक रूपया देकर दूध की पूरी बाल्टी मुंह लगाकर पी गए थे। उनके स्वभाव में भाव प्रवणता और हर किसी को अपना मित्र बना लेने की अद्भुत क्षमता थी। उनके व्यक्तित्व में ज़ज़्बे के साथ साथ तार्किक बौद्धिकता का ऐसा सुमेल था, जो बहुत विरल व्यक्तियों में ही मिलता है। लेकिन कपड़े वे साधारण कुर्ता पायजामा, ढीली ढीली पगड़ी ही पहनते थे। स्वास्थ्य इतना अच्छा था कि भगवान दास माहौर के अनुसार एक बार उन्होंने सबसे बलिष्ठ चन्द्रशेखर आज़ाद को भी चित्त कर दिया था। स्वतंत्रचेता इतने कि एक बार पिता से किसी बात पर विवाद होने से उन्होंने घर से पैसा लेना बंद कर दिया। नौजवान भारत सभा के साथी व दोस्त रामकिशन के ढाबे पर खाना खा लेते और फिल्में उन्हें जयदेव गुप्त दिखा देता था।
कामरेड रामचन्द्र के अनुसार लाहौर में नौजवान भारत सभा 1924 से ही सक्रिय थी, लेकिन कुछ लोग इसका निर्माण मार्च 1926 से मानते हैं। भगत सिंह ही नौजवान भारत सभा के रूहे रवां थे। भगवतीचरण वोहरा सभा में उनके साथी थे। ‘नौजवान भारत सभा’ के खुले मंच से वे भारत में क्रांति का प्रचार करते थे व अंगे्रज़ों द्वारा शहीद किए क्रांतिकारियों के जीवन चरित्र स्लाईडस द्वारा प्रस्तुत करते थे। नौजवान भारत सभा की हर मीटिंग में मंच पर सबसे पहले गदर पार्टी के युवा शहीद कर्तार सिंह सराभा के चित्र पर माल्यार्पण किया जाता था। सराभा का चित्र हमेशा भगत सिंह की जेब में रहता था।
1926 में पंजाब से पंजाबी में गदरी भाई संतोख सिंह के संपादन में ‘किरती’ पत्रिका निकलने लगी थी। भाई संतोख सिंह व अन्य बहुत से गदरी मास्को से साम्यवादी विचारधारा में प्रशिक्षण लेकर लौटे थे।
1925 के वर्ष मंे भगत सिंह दिल्ली के ‘अर्जुन’ अखबार से जुड़े रहे, कानपुर केन्द्र में हिंदुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ से और लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ की गतिविधियों से। अक्तूबर 1926 में लाहौर में दशहरा के अवसर पर बम फटा। इस बम कांड के सिलसिले में भगत सिंह को 29 मई 1927 को पहली बार गिरफ्तार किया गया। पांच सप्ताह तक हिरासत में रखने के बाद 4 जुलाई 1929 को साठ हज़ार रुपए की ज़मानत पर रिहा गया गया। हाथ-पैरों में हथकड़ी-बेड़ी व चारपाई पर बिना पगड़ी के खींचा गया भगत सिंह का चित्र उसी समय का है। पुलिस ने भगत सिंह को गिरफ्तार तो दशहरा बम कांड के बहाने से किया था, लेकिन वे भगत सिंह के संबंध काकोरी रेल डकैती (9 अगस्त, 1925) से जोड़ना चाहते थे, जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। उस वक्त साठ हज़ार की रक़म आज के छः लाख से ज्यादा होगी। किशन सिंह के दो मित्रों - बैरिस्टर दुली चंद (लाहौर) व दौलतराम ने मिल कर यह ज़मानत दी थी।
ज़मानत की वजह से एक तरह भगत सिंह को लाहौर में घर बंदी में रहना पड़ा। पिता ने ख्वासरियां गांव में, जहां उनके पिता ने काफी ज़मीन खरीद ली थी, डेयरी फार्म खोल दिया। भगत सिंह डेरी का काम देखते रहे। साथ ही फार्म क्रांतिकारियेां के आने जाने का अड्डा भी बना रहा। इस बीच घर में बंध कर उन्होंने खूब लिखा पढ़ा, क्रांतिकारियों के चित्र खोजे और उनके रेखाचित्र लिखे, जो बाद में ‘किरती’ व ‘चान्द’ (फांसी अंक) में छपे। ‘अकाली, (पंजाबी) से भी वे 1924 से जुड़े हुए थे। 1924 में उन्होंने पिता के साथ बेलगांव कांगे्रस में हिस्सा भी लिया था। भगत सिंह की भतीजी वीरेन्द्र संधू के अनुसार ‘चांद’ के फांसी अंक में प्रकाशित ‘विप्लव यज्ञ की आहुतियां’ स्तंभ में प्रकाशित क्रांतिकारियों के 47 रेखाचित्रों में से अधिकांश भगत सिंह ने लिखे व कुछ शिव वर्मा ने। इस बात की पुष्टि विशेषांक संपादक चतुरसेन शास्त्री ने भी की है। जनवरी 1928 में जाकर भगत सिंह ज़मानत की जकड़न से छूटे। इसके बाद वे फिर पूरे भारत में घूम कर क्रांतिकारी संगठन को मजबूत करने में लग गए। भगत सिंह के जिन शहरों-कस्बों में जाते रहने का ज़िक्र मिलता है, उनमें पंजाब के लायलपुर, लाहौर, रावलपिंडी, मियांवाली, अमृतसर, जालंधर, फिरोज़पुर से लेकर दिल्ली, कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, सहारनपुर, पटना, बेतिया, ग्वालियर, प्रतापगढ़, झांसी, बेलगांव, कलकत्ता आदि शहरों में उनकी गतिविधियों के उल्लेख मिलते हैं। यह सूची अधूरी है।
1928 के दौरान तीन चार महीने उन्होंने सोहन सिंह जोश के संपादन में अमृतसर से निकल रहे पंजाबी व उर्दू ‘किरती’ पत्रिका में भी काम किया। ‘किरती’ में उन्होंने अपना अत्यंत महत्वपूर्ण लेखन भी किया। भगत सिंह का सर्वाधिक लेखन 1928 के वर्ष में हुआ। ‘चांद’ के नवंबर 1928 के ‘फांसी’ अंक में क्रांतिकारियों के 37 रेखाचित्रों के साथ साथ उन्होंने कम से कम 14 और लेख, जिनमें ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’, ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’, ‘अछूत समस्या’ जैसे बहुचर्चित लेख शामिल हैं, इसी वर्ष ‘किरती’ में छपे। यही वह साल है, जिसमें 8 और 9 सितंबर को भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी दल को वैचारिक रूप में समाजवादी परिपे्रक्ष्य में परिवर्तित किया, जब हिंदुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ को हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ में परिवर्तित किया। भगत सिंह जिस लगन से पूरे विश्व के क्रांतिकारी आंदोलन का अध्ययन कर रहे थे और जिस प्रकार उन्हें माक्र्सवादी विचारधारा ने आकर्षित किया था, उस सन्दर्भ में भगत सिंह का अपने दल को समाजवादी रास्ते पर लेकर जाना स्वाभाविक ही था। लेकिन हिसप्रस, बनने के बाद ही राजनीतिक घटनाक्रम इतनी तेज़ गति से घूमा कि उसकी अंतिम परिणति 23 मार्च 1931 को भगत सिंह की शहादत में हुई। 30 अक्तूबर 1928 को लाहौर में साईमन कमिशन का आगमन था। ‘नौजवान भारत सभा’ व भगत सिंह ने लाला लाजपत राय के तमाम मतभेदों के बावजूद उनसे साईमन कमिशन के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया, जो लाला लाजपत राय ने स्वीकार किया। पच्चीस हज़ार से अधिक जन समूह के ‘साईमन कमिशन’ विरोधी प्रदर्शन पर लाहौर के एस.पी. स्काट के आदेश पर डी.एस.पी. सांडर्स ने क्रूर लाठीचार्ज किया। उसी शाम हज़ारों लोगों की लाठीचार्ज विरोधी जनसभा में लाला लाजपत राय ने गर्जना की - ‘मेरे शरीर पर पड़ी हर लाठी, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कफन की अंतिम कील साबित होगी।’ 17 नवंबर 1928 को लाला जी का इन चोटों के कारण देहांत हो गया। पूरे देश में शोक व क्रोध की लहर दौड़ गई। सी.आर. दास की विधवा वासंती देवी ने देश के युवाओं को ललकारा - ‘क्या कोई युवक इतने बड़े राष्ट्रीय अपमान का बदला नहीं लेगा ?’ हिसप्रस, जिसने 8 और 9 सितंबर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में मज़दूरों, किसानों, युवाओं व विद्यार्थियों के जन संगठन बना कर अपने आंदोलन को पूरे देश के स्तर तक फैलाने का निर्णय लिया था, के लिए यह चुनौती स्वीकार न करना असंभव था। आज़ाद और भगत सिंह का विचार था कि इस राष्ट्रीय अपमान का बदला अवश्य लिया जाए। 9 व 10 दिसंबर को लाहौर के दमंग भवन में हुई मीटिंग मंे लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को खतम करने का फैसला लिया गया। भगत सिंह, राजगुरु व जयगोपाल के इस ‘ऐक्शन’ के लिए चुना गया। चन्द्रशेखर आज़ाद को पूरे ऐक्शन की देखरेख करती थी। लाहौर के एस.पी. कार्यालय पर स्काट के आने जाने पर निगाह रखने के लिए जयगोपाल की जिम्मेदारी लगी। चंद्रशेखर आज़ाद को हिसप्रस के सैनिक अंग हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना’ का कमांडर इन चीफ चुना गया था व भगत सिंह व विजय कुमार सिन्हा को पूरे देश के लिए समन्वयक। सुखदेव को पंजाब के संगठन का प्रभारी बनाया गया था।
17 दिसंबर सायं 4 बजे हैट पहने एक पुलिस अधिकारी मोटर साईकल पर एस.पी. दफ्तर लाहौर से निकला। जयगोपाल उसे स्पष्ट न पहचान सका और उसने इशारा दे दिया, उसके इशारे पर गोली भगत सिंह को चलानी थी, लेकिन राजगुरु ऐक्शन में सामने रहना चाहता था, अतः उसने ट्रिगर दबा दिया। जब तक भगत सिंह ने पहचान कर कहा - ‘पंडित जी, यह स्काट नहीं है’ सांडर्स गोली खाकर मोटर साईकल से गिर चुका था। तब भगत सिंह ने ऐक्शन पूरा करने के लिए तीन चार गोलियां उसे और मार दीं व वहां से सभी सुरक्षित निकल गए। सिपाही चन्नन सिंह ने पीछा किया, आज़ाद के रोकने पर वह नहीं रुका तो उसे आज़ाद ने गोली मार दी। डी.ए.वी. काॅलेज में साईकल छोड़ कर उन्होंने लाहौर से बाहर निकलने की योजना बनाई। भगत सिंह इस ‘ऐक्शन’ से कुछ सप्ताह पहले फिरोज़पुर जाकर अपने केश-दाढ़ी कटवा पाए थे और अब सिर्फ मूंछ रखे हुए थे। इस वेश में उन्हें लाहौर में कोई नहीं पहचानता था। 18 दिसंबर की रात लाहौर में पोस्टर लगाए गए - ‘लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया गया। सांडर्स मारा गया।’ पूरे शहर, देश व दुनिया में इस खबर से सनसनी फैली। राजगुरु, सुखदेव व भगत सिंह दुर्गा भाभी के घर पहुँचें भगवती चरण बोहरा, दल के काम से कलकत्ता गए थे। घर में रखे पांच सौ रुपए दुर्गा भाभी ने निस्संकोच रूप से सुखदेव को दिए। कलकत्ता की रेल टिकट खरीद कर भगत सिंह साध्वी वेश में दुर्गा भाभी के ‘पति’ रूप में, बच्चे शची व ‘नौकर’ वेष में राजकुरु के साथ लाहौर रेलवे स्टेशन से फस्र्ट क्लास में सुरक्षित निकल गए। आज़ाद जी पंडे के वेष में निकल गए। कलकत्ता में उस समय कांगे्रस का वार्षिक अधिवेशन चल रहा था। भगत सिंह वहां सोहन सिंह जोश व कांगे्रस के कुछ अन्य प्रतिनिधियों सें मिले। वे अनुशीलन समिति के त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती व प्रतुल गांगुली आदि से भी मिले। वहीं पर उन्होंने यतीन्द्रनाथ दास को उत्तर भारत में आकर क्रांतिकारियों को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए मनाया। कलकत्ता में वे छज्जूराम के घर रहे, जहाँ सुशीला दीदी उसकी बेटी को पढ़ाती थी। दुर्गा भाभी के पति भगवती चरण वोहरा ने स्टेशन पर इनका स्वागत किया और दुर्गा भाभी को शाबासी दी।
एक सप्ताह कलकत्ता रहने के बाद भगत सिंह कलकत्ता से वह फेल्ट हैट खरीद कर लौटे, जिसके साथ वे विश्व प्रसिद्ध हुए। इस बीच क्रांतिकारी दल ने लाहौर, आगरा व सहारनपुर बम फैक्ट्रियां स्थापित कीं और बम बनाना सिखाने का काम चल निकला।
इस बीच केन्द्रीय असेंबली में बिना पास करवाए ही ब्रिटिश सरकार ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ व ‘टेªड डिस्प्यूटस बिल’ को अध्यादेश के ज़रिए लागू कर रही थी। देश भर में इसका विरोध हो रहा था। असेंबली के अधिकांश सदस्यों के विरोध की भी सरकार अनदेखी कर रही थी, तब दल की बैठक बुलाकर फैसला हुआ कि इस बिल पर जनता के विरोध को फ्रेंच क्रांतिकारी वेलियां की तरह धमाके के रूप में सुनाया जाए। लक्ष्य किसी को मारना नहीं, असेंबली में बम विस्फोट द्वारा सरकार की नींद या जनता विरोधी गफलत को झिंझोड़ना था। पहली मीटिंग में सुखदेव की अनुपस्थिति में जिन दो साथियों को इस लक्ष्य के लिए चुना, उनमें भगत सिंह के अपने आग्रह के बावजूद उन्हें नहीं रखा गया, क्योंकि क्रांतिकारी दल उनका महत्व समझता था और सांडर्स की हत्या में उनका नाम प्रकट होने पर उनको फांसी पर लटकाया जाना निश्चित था। सुखदेव जब लौटा तो उसने भगत सिंह पर छींटाकशी की ‘तुम अपने को महान् समझने लगे हो’ ‘तुम किसी की जुल्फों में फंस कर जान बचाना चाहते हो। भगत सिंह के आग्रह पर मीटिंग दोबारा बुलाई गई और भगत सिंह की ज़िद पर उसे और बटुकेश्वर दत्त को इस ऐक्शन के लिए भेजा जाना तय हुआ। आज़ाद चाहते थे कि बम फेंककर गिरफ्तारी न दी जाए, लेकिन भगत सिंह ने कहा कि वे गिरफ्तार होकर पूरी दुनिया के सामने अपने लक्ष्यों को रखेंगे और विश्व भर में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का क्रूर चेहरा नंगा करेंगे।
जयदेव कपूर की जिम्मेदारी पास बनवाने व उन्हें असेंबली के अंदर छोड़ बम विस्फोट से पहले बाहर आकर अखबारों को खबर पहुंचाने की लगीं कपूर हमनाम के एक पुलिस अधिकारी से दोस्ती गांठ जयदेव ने असेंबली में दाखिले का रास्ता साफ किया। कई दिन असेंबली में जाने आने के दौरान पंजाब के असेंबली सदस्य डाॅ. सैफुद्दीन किचलू ने भगत सिंह को पहचान भी लिया तथा एक तरह से सहायता का आश्वासन भी भेजा। डाॅ. सत्यपाल और डाॅ. सैफुद्दीन किचलू पंजाब कांगे्रस के बड़े वामपंथी नेता थे और भगत सिंह को बहुत चाहते थे।
बम विस्फोट से कुछ दिन पहले दिल्ली के कश्मीरी गेट पर रामनाथ फोटोग्राफर की दुकान से भगत सिंह और दत्त के फोटो खिंचवाए गए, जिनकी प्रतिलिपियां लेने जब जयदेव कपूर विस्फोट के तीन चार दिन बाद गए तो फोटोग्राफर समझ गया कि ये फोटो किस कारण खिंचवाए गए थे। क्रांतिकारी दल ने अपनी योजना इतने सुनियोजित ढंग से बनाई थी कि असेंबली में विस्फोट के साथ भेजे गए पर्चों को पहले ही पे्रस बयान के रूप में टाईप करवा लिया गया था और ‘हिंदुस्तान टाईम्स’ के संवाददाता चमन लाल ने उसी शाम भगत सिंह व दल को फोटो के साथ विशेषांक रूप में पूरा बयान छाप दिया। नौजवान भारत सभा से जुड़े रहे ‘स्टेट्समैन’ के संवाददाता दुर्गादास खन्ना ने इसे कलकत्ता न भेजकर ‘स्टेटसमैन’ के लंदन दफ्तर में भेज दिया, परिणाम स्वरूप अगले दिन के अखबारों में न सिर्फ भारत, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में इस विस्फोट के समाचार छप गए। विस्फोट के समय असेंबली में बिलों पर चर्चा चल रही थी। बम खाली बेंचों पर फेंके गए थे वे हल्के थे, जिनसे कुछ बेंचे क्षतिग्रस्त हुईं व थोड़े से सदस्यों को खरोंचे आईं, लेकिन डर के मारे ब्रिटिश गृहमंत्री सहित अनेक भारतीय सदस्य भी बेंचों के नीचे छिप गए। सिर्फ मोती लाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना आदि सदस्य ही अपनी सीटों पर निशंक खड़े रह सके। बम फेंकने के साथ ही भगत सिंह व दत्त ने ‘इन्कलाब ज़िंदाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे इतने जोश के साथ लगाए कि बाद के वर्षों में देश में यही नारे सबसे प्रमुख हो गए व ‘वन्देमातरम’ का प्रचलित नारा पृष्ठभूमि में चला गया। भगत सिंह व दत्त ने जब अपने पिस्तौल मेज पर रख कर पुलिस अधिकारियों को आगे बढ़ने का संकेत किया, तभी भयभीत पुलिस अधिकारी उन्हें गिरफ्तार करने आगे बढ़े। दोनों युवकों को गिरफ्तार कर 22 अप्रैल तक ‘पुलिस रिमांड’ व बाद में जेल में दिल्ली में ही रखा गया। दोनों ने कोई बयान नहीं दिया, पुलिस ने उन्हें शारीरिक यातनाएं भी नहीं दी। बाद में सेशन कोर्ट, लाहौर में ही भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त का ऐतिहासिक बयान 6 जून 1929 को उनके परामर्शदाता वकील आसफ अली ने पढ़ा। इस केस में दोनेां को 12 जून, 1929 को उम्र कैद की सज़ा दी गई, जिसे हाई कोर्ट ने बहाल रखा। हाई कोर्ट में एक और बयान भगत सिंह ने दिया, जो सेशन कोर्ट बयान की तरह ही ऐतिहासिक साबित हुआ।
14 जून 1929 को मियांवाली और लाहौर की अलग-अलग जेलों में भेजे जाते समय ही भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपनी ऐतिहासिक भूख हड़ताल की घोषणा कर दी और इस तरह भगत सिंह ने जेल प्रवास में संघर्ष के एक नए पड़ाव में प्रवेश किया। स्वतंत्रता आंदोलन में गिरफ्तार कैदियों को राजनीतिक बंदियों का दर्जा देने व उन्हें जेल में अच्छे भोजन व पढ़ने लिखने की सहूलतें देने की मांगों को लेकर यह भूख हड़ताल शुरू की गई। जब 10 जुलाई को लाहौर षड्यंत्र केस की सुनवाई शुरू होने पर भगत सिंह को अदालत में स्ट्रेचर पर लाकर पेश किया गया, तब जाकर लाहौर जेल में बंद साथियों को पता चला। सांडर्स केस की सुनवाई के लिए जब भगत सिंह को भी लाहौर जेल में ही रख लिया गया तो उनके बाकी साथी भी भूख हड़ताल में शामिल हो गए। भगत सिंह और उनके साथियों की यह भूख हड़ताल, न केवल भारत के राजनीतिक इतिहास वरन् विश्व के राजनीतिक इतिहास की महान् घटना है। उनके भूख हड़ताल शुरू करने से पहले आयरिश स्वतंत्रता संग्रामी मैकिस्वनी लंबी भूख हड़ताल कर शहीद हो चुके थे। गदर पार्टी के अनेक क्रांतिकारी जैसे राम रखा अंडेमान जेल में क्रूरताओं के खिलाफ भूख हड़ताल करके शहीद हो चुके थे। आयरलैंड के स्वतंत्रता संग्राम के साथ गदर पार्टी क्रांतिकारियों से भगत सिंह और उनके साथी बहुत प्रभावित थे और अपने इन आदर्श क्रांतिकारियों के पथ का अनुसरण उन्होंने भूख हड़ताल द्वारा भी किया। जेल अधिकारी भूख हड़ताल तुड़वाने के लिए ज़बरदस्ती नाक से नली के ज़रिए दूध पिलाने का प्रयत्न करते थे तो 26 जुलाई को भूख हड़ताल के तेरहवें दिन जतिनदास द्वारा प्रतिरोध करने के कारण फेफड़ों में दूध चला गया, जिससे उनके हालत बहुत खराब हो गई। युवा क्रांतिकारियों की इस आत्म बलिदानी स्पिरिट को देखकर लाहौर जेल में बंद गदरी क्रांतिकारी व गदर पार्टी के पहले अध्यक्ष बाबा सोहन सिंह भकना भी भूख हड़ताल में शामिल हो गए। भगत सिंह से जेल में उनकी मुलाकात होती रहती थी। भगत सिंह ने उनसे भूख हड़ताल में शामिल न होने का अनुरोध किया, क्योंकि उनकी रिहाई नज़दीक थी और उम्र भी ज्यादा थी, लेकिन बाबा भकना, जो पहले भी अंडेमान व अन्य जेलों में कई बार भूख हड़ताल कर चुके थे, शािमल हुए और इससे उनकी रिहाई में बाधा पड़ी और कुछ और कैद उन्हें काटनी पड़ी।
भगत सिंह और उनके साथियों की भूख हड़ताल ने पूरे देश में सनसनी फैला दी। रोज़ अखबारों में उनके गिरते स्वास्थ्य की खबरें छपती थीं। जिन राष्ट्रीय नेताओं ने असेंबली बम कांड के समय असेंबली में और बाहर भगत सिंह व दत्त की जम कर निंदा की थी, वही राष्ट्रीय नेता उनके कुर्बानी को देख जेल में उनसे मिलने आने लगे व उनके पक्ष में बयान देने लगे। मोती लाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, चन्द्रभानु गुप्त आदि नेता सक्रिय हुए। 2 सितंबर को सरकार ने जेल इन्क्वायरी कमेटी की स्थापना की। कमेटी के सदस्यों ने भूख हड़ताली क्रांतिकारियों से उसी दिन मिल कर कहा कि यदि वे भूख हड़ताल छोड़ दें तो सरकार जतिन दास को रिहा कर देगी, जिनकी हालत बहुत खराब हो चुकी थी। 2 सितंबर से भगत सिंह व दत्त भूख हड़ताल के 81 दिन पूरे कर चुके थे व अन्य क्रांतिकारी 53 दिन। भगत सिंह ने अपने साथी जतिन दास की प्राण रक्षा की आशा में कमेटी के वायदे पर भूख हड़ताल स्थगित कर दी। लेकिन सरकार अपनी बात से मुकर गई और उसने जतिन दास को रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार की इस वायदा-खिलाफी के विरोध में भगत सिंह और दत्त ने दो ही दिन बाद 4 सितंबर से पुनः भूख हड़ताल शुरू कर दी। इस भूख हड़ताल की गूंज पूरे देश के साथ केन्द्रीय असेंबली में भी गूंजी। मोहम्मद अली जिन्नाह ने 12 और 14 सितंबर को क्रांतिकारियों की बिगड़ रही सेहत की स्थिति को लेकर सरकार को अपने भाषण में जम कर लताड़ा। मोती लाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय आदि अन्य अनेक नेताओं - यहां तक कि दीवान चमन लाल ने भी असेंबली में इस मुद्दे पर सरकार को कोसा, जिन्नाह के भाषण के दौरान ही 13 सितंबर को जतिन दास शहीद हो गए। सुभाष बोस ने जतिन दास के शव को पूरे सम्मान के साथ कलकत्ता लाने की घोषणा की, लाहौर में लाखों लोगों ने रेलगाड़ी पर रखे जतिन दास के शव को विदा किया और हर स्टेशन पर हज़ारों भारतीयों के महान् शहीद जतिन दास को नमन किया। कलकत्ता स्टेशन पर पहुंचे पांच लाख से अधिक जन-समूह ने अपनी धरती के बेटे को गोद में लिया। आखिरकार सरकार को उनकी कुछ मांगे माननी पड़ीं और कांगे्रस पार्टी के आग्रह पर भूख हड़ताल के 114 दिन पूरे कर 5 अक्तूबर 1929 को क्रांतिकारियों ने अपनी यह ऐतिहासिक भूख हड़ताल समाप्त की। और इस भूख हड़ताल के दौरान अपने साथी जतिनदास की शहादत द्वारा यह भी सिद्ध कर दिया कि क्रांतिकारी केवल हिंसा पथ के पथिक ही नहीं, वे अहिंसात्मक रूप में भी सर्वश्रेष्ठ आत्म बलिदानी देशभक्त हैं।
एक तरफ क्रांतिकारी अपने आत्म बलिदान से पूरे देश के हृदय में अपनी जगह बना रहे थे, दूसरी ओर उसी समय 12 सितंबर 1929 को केन्द्रीय असेंबली में बिल पेश किया, जिसमे अभियुक्तों की गैरहाजिरी में मुकदमा जारी रहने व उन्हें दंड देने का प्रावधान था। मोतीलाल नेहरू जैसे तेजस्वी वक्ताओं के साथ साथ सरकार परस्त सदस्यों को भी इस बिल का विरोध करना पड़ा। बिल तो लोकमत के लिए भेज दिया गया, लेकिन बिना कानून के बने अध्यादेश द्वारा ही ऐसी कार्रवाई का अधिकार सरकार ने अपने पास ही रखा।
स्पेशल मजिस्ट्रेट की अदालत में कार्रवाई शुरू हुई तो भूख हड़ताल की नैतिक जीत से उत्साहित क्रांतिकारी अदालत में ‘इन्कलाब ज़िंदाबाद’ के नारों और देशभक्ति के गीतों से मजिस्टेªट और पुलिस को क्रोध में तमतमा देते। अभियुक्तों ने अदालत में हथकड़ियों पहन कर आने का भी प्रतिरोध किया। अदालत में क्रांतिकारियों से मिलने सुभाष बोस, के.एल. नरीमन, राजा कालाकांकर, रफी अहमद किदवई, बाबा गुरदित्त सिंह (कामागाटामारू) मोहन लाल सक्सेना के साथ मोतीलाल नेहरू भी पहुंचते। इसी बीच अक्तूबर के अंत में अभियुक्तों की जम कर पिटाई की गई। जिसमें आठ हट्टे कट्टे पठान उन पर टूट पड़े। भगत सिंह घायल हुए। अजय घोष और शिव वर्मा पिटाई से बेहोश हो गए। घायल अवस्था में भी भगत सिंह ने मजिस्टेªट को चुनौती दी कि यदि उनके साथियों को कुछ हो गया तो ब्रिटिश सरकार अंजाम भुगतने को तैयार रहे। मजिस्टेªट को अभियुक्तों की हथकड़ियां न पहनने की बात माननी पड़ी। पुलिस ने पूरी शक्ति पर जेल में पिटाई के बाद रिपोर्ट दी - ‘इन्हें मार डाला जा सकता है पर अदालत नहीं लाया जा सकता।
इस बीच जेल सुधार कमेटी की सिफारिशें, जो नवंबर तक लागू की जानी थी, दिसंबर और जनवरी 1930 तक भी नहीं लागू की गई तो 4 फरवरी 1930 को भगत सिंह व उसके साथियों ने एक हफ्ते के नोटिस के बाद फिर भूख हड़ताल शुरू कर दी। इस बार यह भूख हड़ताल दो सप्ताह तक चली, जिसके बाद सरकार ने राजनीतिक कैदियों संबंधी विज्ञप्ति जारी की।
1 मई 1930 को गवर्नर ने विशेषाधिकार का प्रयोग कर लाहौर षड्यंत्र केस की सुनवाई के लिए तीन जजों का स्पेशल ट्रिब्यूनल बनाने का अध्यादेश जारी किया, जिससे ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की पोल खुल गई। भगत सिंह के इस संबंध में लिखे दो पत्र इस पूरी प्रक्रिया के खोखलेपन को उद्घाटित करने वाले हैं। उस ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष थे ने कोल्डस्ट्रम, सदस्य थे - जी.सी. हिल्टन व आगा हैदर। ट्रिब्यूनल के सामने पेश अठारह अभियुक्तों में से कुछ ने पूरी कार्यवाही के बायकाट का, कुछ ने सरकार के खर्च से वकील लेने व भगत सिंह व कुछ अन्य ने अपना मुकदमा वकील के परामर्श से खुद लड़ने का निर्णय लिया। अदालत में क्रांतिकारी नारे लगाते और इन्कलाबी गीत गाते जिससे कोल्डस्ट्रीम चिढ़ता था। 12 मई 1930 को अभियुक्तों की लात, घूंसों और डंडों से वैसी ही पिटाई अदालत के अंदर दोहराई गई, जैसी अक्तूबर 1929 में स्पेशल मजिस्टेªट की अदालत में हुई थी। ट्रिब्युनल के भारतीय सदस्य आगा हैदर ने अखबार से अपना मुंह ढंक लिया तथा बाद में स्वयं को कोल्डस्ट्रीम के आदेश से अलग कर लिया। 13 मई 1930 के बाद भगत सिंह की राय के अनुसार सभी क्रांतिकारियों ने अदालत का बहिष्कार कर दिया। जस्टिस आगा हैदर को सरकार का पक्ष न लेते देख ट्रिव्यूनल का ही पुनर्गठन कर डाला गया। इसमें कोल्डस्ट्रीम व आगा हैदर दोनों को हटा कर जी.सी. हिल्टन को अध्यक्ष व जे.के. टैप व अब्दुल कादिर को सदस्य बनाया गया। वासयराय ने एक तीर से दो शिकार किए। अभियुक्तों से कहा कि आप की शिकायत पर ट्रिब्यूनल का पुनर्गठन किया गया है, जबकि उसने आगा हैदर जैसे निष्पक्ष जज को हटा कर अभियुक्तों की सज़ा सुनिश्चित कर ली गई थी। भगत सिंह राजनीतिक रूप से इर्विन से ज्यादा प्रबुद्ध थे, उन्होंने कहा कि हिल्टन जोकि पिटाई के आदेश का हिस्सेदार है, क्षमा मांगें तब हम अदालत में आऐंगे। इस तरह अभियुक्तों की गैर मौजूदगी में इकतरफा मुकदमें का यह नाटक आगे बढ़ा।
ट्रिब्यूनल ने 26 अगस्त 1930 को अपनी कार्यवाही पूरी कर अभियुक्तों को बचाव का अंतिम मौका देने का प्रहसन भी कियां अभियुक्तों ने साफ इन्कार कर दिया, क्योंकि वे ट्रिब्युनल के दिए जाने वाले फैसले से भलीभांति परिचित थे। भगत सिंह ने 5 अक्तूबर 1930 को साथयों के साथ अंतिम डिनर में साफ तौर पर कहा भी था कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें फांसी का ही दंड मिलेगा। 5 अक्तूबर 1930 के जेल के डिनर में जेल के कुछ अधिकारी भी शामिल थे। इस आनंदपूर्ण समारोह में अट्टहास, चुटकुले लतीफे, गाने, मस्ती सभी कुछ था, भगत सिंह जनता और अदालत में ही नहीं, जेल में भी हीरो थे। जेल अधिकारी भी उन्हें देख कर दंभ रह जाते थे। इतना हंसमुख स्वभाव उन्होंने किसी कैदी का नहीं देखा था।
6 अक्तूबर 1930 को जेल के चारों ओर सशस्त्र बल लगा दिए गए थे। 7 अक्तूबर को जेल के अंदर ही ट्रिब्युनल के संदेशवाहक ने ट्रिब्युनल का 68 पृष्ठ का फैसला अभियुक्तों को पढ़कर सुनाया। फैसले में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी, कमलनाथ तिवारी, विजय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गया प्रसाद, किशोरी लाल (अव्यस्क) महावीर सिंह (अंडेमान में 1933 में अनशन से शहीद) को अंडेमान में उम्र कैद, कुंदन लाल को 7 साल व पे्रमदत्त को पांच साल की सज़ा सुनाई गई। अजय घोष, जितेन्द्रनाथ सान्याल, सुरेन्द्र पांडेय, देशराज और मास्टर आज्ञा राम को रिहा कर दिया गया।
पांच वायदा माफ गवाहों - जयगोपाल, फणीन्द्र घोष (ं1932 में बेतिया में बैकुंठ शुक्ल द्वारा हत्या), मनमोहन बनर्जी, हंसराज बोहरा व ललित मुखर्जी को इस मुकदमें से डिस्चार्ज कर दिया गया।
इस बीच भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने बेटे से बिना पूछे ‘भगत सिंह के सांडर्स हत्याकांड के दिन लाहौर में न होने संबंधी’ एक अपील ब्रिटिश सरकार को देने से भगत सिंह तिलमिला उठे और उन्होंने पिता को कड़ा पत्र लिख कर उसके पत्र को तुरंत अखबारों में छपवाने को कहा, जो उनकी इच्छानुसार उनके पिता ने हिंदी, उर्दू, अंगे्रजी व पंजाबी के सभी अखबारों में छपने को भेज दिया।
8 अक्तूबर को ‘भगत सिंह को फांसी की सज़ा’ का समाचार पूरे देश के अखबारों में प्रथम पृष्ठ की सुर्खियां बना तो एकदम हलचल मच गई। लाहौर व पंजाब के अनेक हिस्सों में नौजवान भारत सभा व लाहौर स्टुडेन्ट्स यूनियन के आह्वान पर स्कूल काॅलेजों में हड़तालें हुईं। सत्रह महिलाओं समेत बहुत से विद्यार्थी गिरफ्तार हुए। बे्रडले हाल में नौजवान भारत सभा का जल्सा हुआ। मोरी गेट में कांगे्रस का, जिसमें हज़ारों लोगों ने हिस्सा लिया।
नौजवान भारत सभा की पहलकदमी पर पूरे देश में ‘भगत सिंह डिफेंस कमेटी’ व ‘भगत सिंह अपील कमेटी’ का गठन हुआ। पंजाब में कुमारी लज्जावती ‘भगत सिंह डिफेंस कमेटी; की सचिव थीं व जेल में लगातार भगत सिंह और उनके साथियों से मिलती थी। भगत सिंह अपील करने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन उनके वकील प्राणनाथ मेहताव आसफ अली के समझाने से तैयार तो हुए, लेकिन सिर्फ कुछ समय हासिल कर जनता के मन में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रति आक्रोश जगाने के लिए उन्होंने अपने साथी विजय कुमार सिन्हा से अपील करते समय कहा था - ‘भाई ऐसा न हो कि फांसी रुक जाए।’ उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि ‘उन्हें फांसी तब हो जब देश की जनता का जोश अपने पूरे उफान पर हो और उसका ध्यान पूरी तरह फांसी की ओर केंद्रित हो।’ नौजवान भारत सभा के गठन से लेकर फांसी तक भगत सिंह के मन में एक ही भावना थी कि कैसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का असली चेहरा उघाड़ कर भारतीय जनता के मन में उसके प्रति आक्रोश जगाया जाए, जिससे राजनीतिक रूप से जाग्रत होकर वह ब्रिटिश शासन को अपनी धरती से उखाड़ फेंके। साथ ही वे ये भी चाहते थे कि ‘गोरे की जगह काले शासक’ तक ही यह तब्दीली सीमित न रहे, वरन् सच्ची समता, न्याय व श्रम के सही मूल्य पर आधारित सोवियत संध की तरह हमारे देश में एक समाजवादी व्यवस्था का भी निर्णय हो। अपने जीवन को तो वे इस महान् लक्ष्य की प्राप्ति का विनम्र साधन ही मानते थे और कुछ नहीं। शहादत से कुछ दिन पहले अपने साथियों को लिखे अंतिम पत्र में उन्होंने कहा भी कि ‘अपने छोटे से जीवन में उन्होंने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे को लाखों लोगों तक पहुंचा दिया, यह उनके इस जीवन का सबसे बड़ा संतोष है।’ लेकिन भगत सिंह ने सिर्फ इतना ही नहीं किया, उन्होंने देश में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद विरोध की ऐसी मशाल जलाई है, जो उनके जाने के 76 वर्ष बाद और भी प्रबल रूप से जल रही है।
प्रिवी कौंसिल में भगत सिंह के परामर्श पर स्पेशल ट्रिब्युनल की वैधता पर प्रश्न उठाते हुए अपील की गई, जिसे खारिज होना ही था। लेकिन इस बीच छः महीने का जो समय मिला, उसका क्रांतिकारियों ने देश की जनता को जगाने में जम कर प्रयोग किया। ट्रिब्युनल के निर्णय के बाद फांसी की तारीख 27 अक्तूबर निश्चित हुई थी। अपील होने से फांसी स्थगित हो गई। इस बीच अध्यादेश की अवधि खत्म होने से 31 अक्तूबर को ट्रिब्युनल अपने आप खत्म हो गया। ट्रिब्युनल का फैसला उसकी अवधि में लागू न होने से ट्रिब्युनल की फैसले की न्यायिक वैधता नहीं रह गई थी। प्रिवी कौंसिल ने अपनी उपनिवेशवादी नीतियों की रक्षा में इस न्यायिक बिंदु की ज़रा परवाह नहीं की और पूरे विश्व के जनमत को धता बताते हुए इन क्रांतिकारियों की फांसी की सज़ा बहाल रखी। इस संबंध में लंदन, न्यूयार्क, पेरिस, मास्को, दुनिया के हर बड़े शहर के अखबारों में खबरें और लेख छपे। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने इन क्रांतिकारी युवकों का अभिनंदन किया।
12 फरवरी 1931 को प्रिवी कौंसिल ने भगत सिंह और उनके साथियों की अपील खारिज कर दी। इससे पूरे देश में एक बार फिर हलचल मच गई। भगत सिंह अपील कमेटी व ‘भगत सिंह डिफेंस कमेटी’ के आह्वान पर लाहौर, दिल्ली, कानपुर व देश के अनेक शहरों-कस्बों में हज़ारों/लाखों लोगों की जनसभाएं व प्रदर्शन इस फांसी के विरोध में हुए। मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष बोस, मदनमोहन मालवीय आदि राष्ट्रीय नेताओं ने फांसी के खिलाफ आवाज़ उठाई। पूरे देश में हस्ताक्षर अभियान चला। अकेले पंजाब से एक लाख हस्ताक्षर युक्त व कानपुर शहर से चालीस हजार हस्ताक्षर युक्त विरोध पत्र सरकार को मिले। राष्ट्रीय अभिलेखागार में दो लाख से अधिक हस्ताक्षर युक्त विरोध पत्रों के रिकार्ड उपलब्ध हैं। लेकिन सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं होना था। इस बीच भगत ंिसह ने जेल में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ लेखन किया। 5-6 अक्तूबर 1930 को उन्होंने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ की रचना की, 15 जनवरी 1931 को ‘ड्रीमलैंड की भूमिका’ व 2 फरवरी 1931 को ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र’ जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के दस्तावेजों की रचना मृत्युदंड प्राप्त कैदी की कालकोठरी में बैठकर कीं। इसी बीच 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर के नाम व 22 मार्च 1931 को ‘साथियों के नाम अंतिम पत्र’ भी राजनीतिक परिपक्वता की दृष्टि से ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। जेल के दो वर्ष के प्रवास के दौरान पत्र 108 पुस्तकों व 44 लेखकों की रचनाओं से नोट्स लेकर ‘जेल नोट बुक’ तैयार हुई, जिसमें ‘राज्य का विज्ञान’ शीर्षक से प्रस्तावित पुस्तक की रूपरेखा भी शामिल है। शिव वर्मा व कुछ अन्य साथियों के अनुसार चार पुस्तकें भी उन्होंने लिखीं - ‘समाजवाद का आदर्श (प्कमंस व िैवबपंसपेउ) ‘आत्मकथा (।नजवठपवहतंचील) ‘भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास’ व ‘मौत के दरवाजे पर’ (वद जीम कववतेजमचे व िक्मंजी)। भगत सिंह ने शहादत से पहले अपनी लिखी हुई सामग्री एक थैले में रख कर कुमारी लज्जावती को इस निर्देश के साथ सौंपी थी कि इसे वह विजय कुमार सिन्हा को उनकी अंडेमान से रिहाई के बाद सौंप दे। कुमारी लज्जावती ने यह सामग्री ‘पीपुल’ के संपादक ला. फिरोज़ चंद को देखने के लिए दी, जिन्होंने उससे कुछ लेख निकाल कर ‘पीपुल’ में 1931 के वर्ष में ही छाप दिए। 1938 में बाकी सामग्री - विजय कुमार सिन्हा को दी गई, जो उनके अनुसार 1946-47 में किसी संपर्क को सुरक्षित रखने के लिए दी जाने के बाद, उस संपर्क द्वारा पुलिस के डर से नष्ट कर दी गई। कुलबीर सिंह के अनुसार उसने कुछ सामग्री ले ली थी, जो 1994 में ‘जेल नोट बुक’ रूप में छप कर सामने आई, यद्यपि रूसी विज्ञान रायकोव व मित्रोखिन उसे 1970 के आसपास पढ़ कर उस पर लिख भी चुके थे।
महात्मा गांधी पर इस बात का दबाव बढ़ रहा था कि वे वायसराय से फांसी रुकवाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करें। इस बीच 4 मार्च 1931 को ‘गांधी इर्विन समझौता’ हुआ, जिससे फांसी की सजा रुकवाना शर्त नहीं बनाया गया। दुर्गा भाभी व सुशीला दीदी इस सिलसिले में महात्मा गांधी से दिल्ली में मिली भी। सुभाष बोस, जवाहरलाल नेहरू व मदनमोहन मालवीय आदि ने भी महात्मा गांधी पर दबाव डाला। 6 फरवरी 1931 को मोतीलाल नेहरू के देहांत से भगत सिंह व उनके साथियों का एक बड़ा हमदर्द चला गया। लेकिन यह फांसी किसी सूरत में न टल सकती थी। कारण ब्रिटिश उपनिवेशवादी अधिकारी फांसी टालने की सूरत में इस्तीफा देने की धमकी दे चुके थे, महात्मा गांधी हिंसा-अहिंसा के सवाल पर कोई समझौता नहीं कर सकते थे और भगत सिंह किसी भी सूरत में न तो अपना जीवन बचाना चाहते थे और न ही अपने सिद्धांतों से समझौता करना। यह बात उन्होंने अपने पत्र में स्पष्ट भी कर दी थी। भगत सिंह अपनी शहादत से जनता को जगाना चाहते थे। यह उनका अपना राजनीतिक विवेक था, इसमें उन पर न कोई दबाव था और न किसी किस्म की मजबूरी। अपने जीवन के बारे में और मृत्यु के बारे में भी ऐसी स्पष्ट समझ भारत में क्या पूरी दुनिया में विरल है। इस संबंध में भगत सिंह की तुलना सिर्फ चे ेग्वेरा से ही जा सकती है, जो अपने जीवन और मृत्यु दोनों संबंधी बेहद स्पष्ट थे। जब दुनिया में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए क्रांतियों का समेकित इतिहास लिखा जाएगा, तो निश्चित रूप से उनमें भारत के भगत सिंह का नाम दुनिया भर के सर्वोच्च क्रांतिकारी शहीदों में शामिल होगा।
भारतीय जनता के करोड़ों लोगों की भावनाओं को कुचलते हुए ब्रिटिश आपैनिवेशक सरकार ने 17 मार्च को इन युवा क्रांतिकारियों को चुनचाप 23 मार्च शाम को फांसी देने व खबर को 24 मार्च सुबह प्रसारित करने का ‘टाॅप सीक्रेट’ निर्णय लिया। लेकिन 24 मार्च सुबह फांसी होने की खबर प्रायः लोगों को पता थी। 20 मार्च को दिल्ली में फांसी के विरोध में बड़ी भारी जनसभा नेताजी सुभाष बोस ने आयोजित की थी। 23 मार्च सुबह भगत सिंह के संबंधियों को अंतिम मुलाकात के लिए बुलाया गया था। सुखदेव के पिता नहीं थे और उनके पिता समान ताया ला. अचिंत राम को मुलाकात की अनुमति न दिए जाने से तीनों शहीदों के परिवारों, जिनमें राजगुरु की माता महाराष्ट्र से आई थी, ने विरोध स्वरूप मुलाकात न करने का फैसला किया। ब्रिटिश औपनिवेशक सरकार पर भगत सिंह मामले में इतने अमानवीय व क्रूर धब्बे लगे हैं कि सदियों तक ये मिट न सकेंगे। लाहौर में हज़ारों लोगों की जनसभा अभी चल ही रही थी कि लाहौर जेल के नज़दीक रह रहे के. संतानम ने जेल से ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के आकाश भेदी नारों व ‘भगत सिंह - राजगुरू - सुखदेव’ ज़िंदाबाद के नारों से उन्होंने अंदाजा लगा लिया कि तीनों युवा क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया है और यह खबर जल्सा खतम होते होते पहुंच गई व सैकड़ों लोग जेल के गेट पर जमा हो गए। भगत सिंह के पिता ने अत्यधिक संयमित रहते हुए सब को शांति बनाए रखने की अपील की।
उधर भगत सिंह से सुबह मुलाकात करने आए उनके वकील प्राणनाथ मेहता उनकी इच्छा के अनुसार लेनिन से संबंधित किताब लाए थे, जिसे अपने सेल में बैठे भगत सिंह पढ़ रहे थे कि वार्डर चढत सिंह ने आकर रोते रोते कहा कि ‘भगत सिंह आखिरी वक्त में वाहेगुरू का नाम ले लो’। भगत सिंह ने प्यार से हंस कर कहा कि ‘विचारों से मैं नास्तिक हूं। अपने विचारों की स्वतंत्रता के कारण फांसी चढ़ रहा हूं। मरते वक्त अपने सिद्धांतों से ही हट जाऊंगा तो मेरी क्या प्रतिष्ठा रहेगी। लेकिन आपकी भावना की मैं कद्र करता हूं।’ आखिरी इच्छा के रूप में उन्होंने ‘बेबे’ यानी जेल के दलित कर्मचारी बोघा के हाथ की बनी रोटी खानी स्वीकार की और तैयार होकर लेनिन संबंधी पुस्तक पढ़ते रहे। छः बजे के करीब उन्हें ले जाने आए जेल वार्डर से उन्होंने कहा, ‘ज़रा इंतज़ार करो, एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी से मिलने दो।’ उसके बाद कुछ मिनटों में पुस्तक का अध्याय समाप्त किया और चलने के लिए उठ खड़े हुए। दूसरी कोठरियों से सुखदेव और राजगुरु निकले। गले मंे बाहें डाल तीनों युवा ‘रंग दे बसंती’ गाते फांसी घाट की ओर बढ़ चले। (आजकल लाहौर में इस जेल और फांसीघाट को समाप्त कर शादमान कालोनी व चैक बना दिया गया है, जहां 23 मार्च को लाहौर के लोग शाम के सात बजे मोमबत्तियां जलाकर भगत सिंह को याद करते हैं)। फांसीघाट पहुंच कर तीनों ने ‘इन्कलाब जिं़दाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे गुंजाए। जेल के अन्य हिस्सों से ‘भगत सिंह/राजगुरु/सुखदेव ज़िंदाबाद’ के नारे गूंज उठे। मजिस्टेªट से भगत सिंह ने कहा - ‘मि. मजिस्टेªट आप सौभाग्यशाली हैं कि देशभक्त भारतीयों की हंसते हंसते फांसी चढ़ते देख रहे हैं।’ फांसीघाट पर भी राजगुरु फांसी चढ़ने के लिए सबसे उतावता था। फांसी पद चढ़ने के लिए भगत सिंह को जब मुंह ढकने के कपड़ा दिया गया तो उसने उसे फेंक दिया और शीश ऊंचा उठाए फांसी का फंदा गले में पहन कर झूल गया। बी.एम. कौल ने पहली बार अपनी किताब में इस बात का खुलासा किया है कि भगत सिंह ने फांसी चढ़ते वक्त मुंह पर काला कपड़ा नहीं पहना था और नंगे मुंह फांसी पर चढ़ा था। सात बजे फांसी देकर एक घंटे बाद तीनों शवों को उतारा गया।
जेल दरवाज़े पर बढ़ती भीड़ से घबराकर जेल प्रशासन ने तीनों शवों को जल्दवाजी में काट काट कर बोरों में भर दिया व जेल के पिछले दरवाजे से बाहर खड़े ट्रक पर चढ़ा कर कसूर की तरफ भेज दिया। जेल के सामने इकट्ठे जनसमूह को भी खबर मिल गई। भगत सिंह की बहिन अमर कौर, लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी सहित सैकड़ों लोग पैदल ही लालटेनें लिए आधीरात कसूर की ओर दौड़ पड़े। उधर फिरोज़पुर शहर से पुलिस ने एक पंडित और ग्रंथी को उठाया। कुछ लकड़ियां व केरोसिन खरीदा और गंडा सिंह वाला गांव के पास जंगल में लाशों को जल्दी से बिना रस्में पूरी किए लकड़ी/केरोसिन मिलाकर जला डाला। अधजली लाशें छोड़ कर जनता के आ जाने के भय से पुलिस/जेल कर्मचारी वहां से भाग गए। रात में दो अढ़ाई बजे जंगल में तलाश करते जन समूह को गर्म जगह खोदने पर अधजली हड्डियां मिलीं तो उन्हें एकत्र कर जन समूह 24 सुबह तक लाहौर उन अस्थि अवशेषों को लेकर लौट आया। ब्रिटिश सरकार ने 24 मार्च सुबह विज्ञप्ति जारी की कि ‘23 मार्च शाम सात बजे भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को फांसी देकर धार्मिक रीति से उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया है। तीनों परिवारों का शव सौंपने की कानूनी और नैतिक वैधता की भी ब्रिटिश सरकार ने परवाह नहीं की, न ही शवों को उचित सम्मान देने की। भगत सिंह का पूरा प्रसंग एक ओर भगत सिंह को देदीप्यमान सितारे की तरह प्रस्तुत करता है तो दूसरी ओर ब्रिटिश औपनिवेशक सरकार को बदनुमा काले अमानवीय धब्बों युक्त व्यवस्था के क्रूरतम रूप में।
समाचार-पत्रों में यह खबर 25 मार्च को ही छप सकी। लाहौर के ‘ट्रिब्यून’ से लेकर लंदन और न्यूयार्क के ‘डेली वर्कर’, पेरिस के ‘ला ह्यूमानेत’, मास्को के ‘प्रावदा’ सहित भारत की हर भाषा के अखबार में यह खबर प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से छपी व पूरे देश में इस दिन ज़बरदस्त हड़ताल रही। 25 मार्च 1931 को हड़ताल के ही दौरान दुःखद रूप से कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी भी शहीद हो गए। 25 मार्च से शुरू हुई कराची कांगे्रस पर इन फांसियों का गहरा असर देखा जा सकता था। देश के हर छोटे बड़े नेता ने इन फांसियों पर अपना दुःख व्यक्त किया। साढे तेईस वर्ष भी पूरे न कर पाने वाला भगत सिंह हर भारतीय का हृदय सम्राट बन गया। पेशावर से कन्या कुमारी व ढाका से कराची तक हर जगह भगत सिंह के चित्र थे। देश की हर भाषा में भगत सिंह पर किताबें, लेख, कविताएं, गीत, कहानियों का अंबार लग गया और ब्रिटिश सरकार ने इन प्रकाशनों का धड़ाधड़ ज़ब्त करना शुरू किया। हिंदी में 54, मराठी में 4, तमिल में 19, उर्दू में 17, अंगे्रज़ी में 9, पंजाबी में 7, बंगला, सिंधी, गुजराती में 2-2 व कन्नड व तेलुगु में एक-एक ऐसे प्रकाशन 1930 से 1946 के बीच ज़ब्त किए गए।
बनारस से 1930 में ही भगत सिंह के मुकदमें के दौरान ही अखबार की रिपोर्टों पर आधारित छपी किताब प्रतिबंधित हुई ‘भविष्य’ में 1931 में धारावाहिक व 1932 में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित जितेन्द्रनाथ सान्याल रचित भगत सिंह की जीवनी प्रतिबंधित हुई व लेखक/प्रकाशक को दो साल की कैद हुई। जितेन्द्रनाथ सान्याल लाहौर षड्यंत्र केस से तो बरी हो गए थे, लेकिन भगत सिंह की जीवनी लिखने पर दो साल फिर जेल में रहे। ‘कराची कांगे्रस’ किताब, जिसमें भगत सिंह पर जवाहरलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय आदि के भाषण शामिल थे, प्रतिबंधित हुई। भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव के चित्र प्रतिबंधित हुए। ‘भविष्य’ व ‘अभ्युदय’ के भगत सिंह अंक प्रतिबंधित हुए। ‘लाहौर की फांसी’ शीर्षक काव्य संग्रह प्रतिबंधित हुआ। मराठी भाषा के लोकगीत ‘पोवडा - भगत सिंह पर रचित तीन पोवडे प्रतिबंधित हुए। दिलचस्प बात है कि हिंदी के बाद प्रतिबंधित प्रकाशनों में सबसे बड़ी संख्या तमिल में है। तमिल में ही 1934 में भगत सिंह के लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ का पी. जीवानंदम द्वारा किया अनुवाद ई. पेरियार ने छापा और ई. पेरियार ने ही अपनी तमिल पत्रिका ‘कुडई आरसु’ में 29 मार्च अंक के भगत सिंह पर भाव प्रवण संपादकीय लिखा। पंजाबी में रची भगत सिंह पर लोकगीत रचनाएं - ‘घोडियां’ प्रतिबंधित हुईं।
और इन सबका परिणाम वही हुआ जो भगत सिंह ने सोचा था, भारतीय जन मानस में भगत सिंह की छवि ऐसी गहरी जमी कि वे मर कर भी अमर हो गए और भगत सिंह के ही शब्दों में वे ‘ब्रिटिश उपनिवेशवाद के लिए ज़िंदा भगत सिंह से अधिक खतरनाक हो गए।’ ब्रिटिश उपनिवेशवाद और भगत सिंह के बीच राजनीति के अलावा नैतिक स्तर पर भी युद्ध था। पूरी दुनिया में सूरज न डूबने देने वाली असीम शक्ति ब्रिटिश उपनिवेशवाद और महज़ सौ पचास युवकों के साथ भगत सिंह के बीच जो नैतिक युद्ध हुआ, उसमें भगत सिंह अपने प्राण देकर विजयी हुए और ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की विश्व भर के सामने नैतिक स्तर पर शर्मनाक हार हुई। आज भगत सिंह अपने जीवन कर्म और लेखन के साथ अपने भरपूर यौवन के साथ जीवित है और ब्रिटिश उपनिवेशवाद इतिहास के कूड़ेदान में फेंका जाकर सड़ चुका है।
भगत सिंह के जीवन पर यह विहंगम दृष्टिपात उनके लेखन और व्यक्तित्व को समझने के सन्दर्भ में ही है। आज प्रमुख रूप में भगत सिंह के गंभीर चिंतन को उनके लेखन के ज़रिए समझने और समझ कर देश की समस्याएं सुलझाने व देश के युवाओं को दिशा देने के लिए अत्यंत ज़रूरी व उपयोगी है। भगत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर यह पुस्तक भी इसी लक्ष्य को हासिल करने का छोटा सा प्रयास है।
3 comments:
Dear Prof. Chamanlal,
I'm Sivakumar of Tamilnadu.
I have compiled and translated more than 40 letters and writings of BhagatSingh into thamil and published it in the year 2006. As it is well received by tamil readers it's second editition came in january 2009.
At the time of 2nd edition i want to add in the annexure the excerpts of debate of Jinnah in the Assembly on Cr.PC amendment Bill in 1929 September in defending Bhagatsingh. In the year 2006 i found the text of that debate in www.shaheedbhagatsingh.org. But unfortunately when I searched for it in 2009 i could not find it there. Because of that without any update 2nd edn came.
I think you are the right person who can help me. Please send me a text of Jinnah's speach on Cr.PC amendment Bill made in 1929 September in defending Bhagatsingh or give me a link to that.
Thanking You
with regards
T.Sivakumar
Madurai
Tamilnadu
Cell: 0 94430 80634
Dear Prof. Chamanlal
In my previous comment I have not mentioned my mail ID.
This is My Mail ID
tha.sivakumar.in@gmail.com
Please send me a text of Jinnah's speach on Cr.PC amendment Bill made in 1929 September in defending Bhagatsingh or give me a link to that.
Thanking You
with regards
T.Sivakumar
Madurai
Tamilnadu
Cell: 0 94430 80634
Saadar naman...
http://kavikulwant.blogspot.com
022-25595378
Post a Comment