भगत सिंह | चित्रण : अरिंदम मुखर्जी/दिप्रिंट
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भगत सिंह की बात होते ही हम उनके जीवन के क्रांतिकारी पहलुओं के बारे में ही चर्चा करते हैं लेकिन एक इंसान के जीवन की कई परतें होती हैं. परत दर परत इंसान कई संभावनाएं लिए होता है. भगत सिंह भी ऐसी ही शख्सियत थे. जो केवल क्रांति का ही जज्बा नहीं रखते थे बल्कि समाज के अलग-अलग मसलों पर अपने विचार रखते थे जो उनके समकालीन लोगों से हमेशा लीक से हटकर होते थे. इसके पीछे उनका व्यापक अध्ययन और समाज को देखने का नज़रिया था. भगत सिंह का मानना था कि हम तभी किसी के तर्कों को काट सकते हैं जब हमने अध्ययन किया हो.
1923 का समय था. भगत सिंह नेशनल कॉलेज लाहौर से एफ.ए (फैक्लटी ऑफ आर्ट्स) कर रहे थे. बहसों और चर्चाओं में उनका मन रमता जा रहा था. इसी दौरान उनके दादाजी ने उनकी शादी करने का फैसला किया. वह इसके खिलाफ थे और अपने जीवन को देश के लिए समर्पित करना चाहते थे.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल ने अपनी किताब भगत सिंह रीडर में भगत सिंह द्वारा अपने पिता को लिखी चिट्ठी का ज़िक्र किया है. उन्होंने अपने पिता को खत में लिखा कि मेरा एकमात्र उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति है. इसलिए मेरे लिए इच्छाओं और आराम का कोई स्थान नहीं है. आपको याद होगा कि मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के समय बापूजी ने कहा था कि मेरा जीवन देश के काम आएगा. मैं उसी को निभा रहा हूं. मैं आशा करता हूं कि आप उदारतापूर्वक मुझे माफ करेंगे.
कम उम्र में ही भगत सिंह ने समाज के कई महत्वपूर्ण विषयों पर अपने विचार रखे. इन विचारों के पीछे उनका विषय के बारे में गहन अध्ययन और तार्किक आधार था. अस्पृश्यता, सत्याग्रह, युवा नेताओं, धर्म समेत कई विषयों पर उन्होंने विस्तार से लिखा जो अलग-अलग नाम से तत्कालीन अखबारों में छपा.

उठो ! अपने इतिहास की तरफ देखो

1920-30 के समय अछूत और अस्पृश्यता को लेकर एक बड़ा सवाल समाज के सामने खड़ा था. समाज में निचली जातियों के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता था. इसी को लेकर जून 1928 में भगत सिंह ने विद्रोही नाम से ‘अछूत दा सवाल ‘ शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा. जिसमें उन्होंने मजदूर वर्ग जिन्हें अछूत माना जाता था, उनकी समस्या को लेकर, उनके प्रति समाज की सोच और कैसे यह वर्ग उठ खड़ा हो, इस पर विस्तार से लिखा और इसका हल बताया.
भगत सिंह ने अपने लेख में लिखा, हमारा देश धार्मिक मान्यताओं को मानते हुए भी मनुष्य को मनुष्य की तरह नहीं देखता है. अमेरिकन और फ्रेंच क्रांति के मूल में समानता की भावना थी. आज रूस से भी सभी तरह के भेदभाव खत्म हो गए हैं. लेकिन हम अपने देश में देखें तो हम अपने ही लोगों के साथ ठीक से व्यवहार नहीं करते हैं. जब हमारे लोग दूसरे देश जाते हैं और उनके साथ वहां दुर्व्यवहार होता है तो वो शिकायत करते हैं. क्या हमें ऐसा करने का कोई हक है?
वो आगे लिखते हैं – हम जानवरों को अपने पास बैठाते हैं लेकिन एक मनुष्य को अपने पास बैठाने से हिचकते हैं.
एक अच्छा समाज कैसे बनाया जाए इसका जवाब भी भगत सिंह अपने इसी लेख में देते हैं. वो लिखते हैं – इस समस्या का हल बहुत आसान है. हमें सभी मनुष्यों को एक समान रूप से देखना चाहिए. जन्म या उसके काम के आधार पर भेदभाव को बंद करना पड़ेगा तभी समतामूलक समाज का निर्माण हो सकता है.


वो अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों से कहते हैं – कि उठो ! अपने इतिहास की तरफ देखो. आप लोग ही गुरू गोविंद सिंह की सेना की जान थे. आप लोगों की वजह से ही शिवाजी कुछ कर पाए. आप लोगों का संघर्ष और बलिदान स्वर्णिम अक्षरों मेंं लिखा जा रहा है. आपको अपने प्रयासों द्वारा खुद ही उठना पड़ेगा. संगठित होकर लड़ना होगा. फिर देखिए कोई आपको आपके अधिकारों को देने से रोक नहीं पाएगा.
आप लोग ही इस देश के आधार हैं. आप लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होइए. सामाजिक आंदोलन के ज़रिए एक क्रांति को जन्म दीजिए.

नेहरू के विचारों को अपनाने की ज़रूरत

1928 में भगत सिंह ने नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की तुलना करते हुए एक लेख लिखा. इस लेख में उन्होंने दोनों नेताओं को उनके विचार को लेकर तुलना की. इस लेख में भगत सिंह असहयोग आंदोलन के असफल होने के बाद पुराने नेताओं के हाशिए पर चले जाने और नए नेताओं के उदय को देखते हैं. ऐसे नेताओं में भगत सिंह दो शख्यियतों पर विस्तार से उनके विचारों की तुलना करते हैं. इनमें से एक बंगाल के सुभाष चंद्र बोस और दूसरे जवाहरलाल नेहरू थे.
भगत सिंह लिखते हैं कि दोनों ही नेता भारत की आज़ादी के लिए प्रतिबद्ध हैंं लेकिन दोनों अपने विचारों के स्तर पर काफी अलग हैं. एक भारतीय संस्कृति का वाहक और भावनात्मकता से जुड़ा है तो दूसरा एक क्रांतिकारी है.
भगत सिंह बोस को एक भावनात्मक बंगाली व्यक्ति के रूप में देखते हैं. उनका मानना है कि बोस भारत को पूरे विश्व का आध्यात्मिक गुरू के रूप में देखते हैं. उनका सभ्यता पर विश्वास है. वो लोकतंत्र और गणतंत्र को हिंदुस्तान से ही निकला सिद्धांत मानते थे. बोस कम्युनिज़्म को भी भारत में नया नहीं मानते थे.
वहीं दूसरी तरफ भगत सिंह नेहरू को अलग रूप से देखते हैं. उनके मानना था कि नेहरू युवाओं में विद्रोही भावना देखना चाहते थे. विद्रोह सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आर्थिक,सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में भी. भगत सिंह का मानना था कि नेहरू तार्किक आधार पर सोचते थे न कि मान्यताओं और भावनाओं के आधार पर.
सुभाष चंद्र बोस भी पूर्ण स्वराज के पक्ष में थे. लेकिन उन्होंने कहा था – पश्चिम ने अंग्रेज़ी को अपनाया है और हम पूरब के हैं. इसलिए इनका हमारे मुल्क पर राज नहीं होना चाहिए. वहीं नेहरू का मानना था कि हमें आज़ादी इसलिए चाहिए ताकि हम अपना राज कायम करें और सामाजिक व्यवस्था को बदलें.
बोस मज़दूरों की स्थति को लेकर चिंतित थे लेकिन नेहरू चाहते थे कि क्रांति के ज़रिए इस पूरी व्यवस्था को बदला जाए. बोस ने युवाओं के लिए बहुत कुछ किया लेकिन सिर्फ दिल से. दूसरी तरफ नेहरू ने दिल और दिमाग से युवाओं के लिए काम किया.


भगत सिंह इस लेख में आगे लिखतें हैं कि पंजाब हमेशा से ही भावनात्मक क्षेत्र रहा है. यहां के लोग बहुत जल्द ही उत्साहित हो जाते हैं. इसीलिए पंजाब के लोगों को इस वक्त नेहरू के विचारों के साथ आगे बढ़ना चाहिए. पंजाब के युवाओं को नेहरू के रास्ते पर चलकर क्रांति का मतलब और हिंदुस्तान में क्रांति का मतलब के बारे में जानना चाहिए.

मैं नास्तिक क्यों हूं

भगत सिंह ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा अध्ययन और लेखन के कामों में लगाया था. अपने लेखन और विचार के लिए भगत सिंह अपने समकालीन सभी से आगे थे. उनका लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘  27 सितंबर 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपल’ में प्रकाशित हुआ था. स्वतंत्रता सेनानी बाबा रंधीर सिंह को जेल में पता चला कि भगत सिंह ईश्वर पर विश्वास नहीं करते. उन्होंने सिंह को समझाने का बहुत प्रयास किया. इसके जवाब में भगत सिंह ने इस लेख को लिखा. इसमें उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर तर्क दिए.
भगत सिंह लिखते हैं कि लोग कहते हैं कि दिल्ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र के बाद जो मुझे यश मिला है उसी के अहंकार में मैं खुद को नास्तिक मानने लगा हूं. लेकिन ऐसा नहीं है. बचपन से ही मैं ऐसे परिवार में पला-बढ़ा हूं जो आस्तिकता में विश्वास रखता है. नेशनल कॉलेज आने से पहले तक मैं खुद आस्तिक था. यहां आकर मैंने अध्ययन करना शुरू किया और तर्कों के आधार पर सोचना शुरू किया. मेरे आसपास खासकर मेरे क्रांतिकारी मित्र भी कभी भगवान के अस्तित्व को चुनौती देने का साहस नहीं कर सके.
ईश्वर द्वारा इस संसार की रचना करने की जो बात कही जाती है वो पूरी तरह से बकवास है. 1926 आते-आते मुझे विश्वास हो गया था कि ईश्वर के होने की मान्यता बकवास है. इसके पीछे कारण यह था कि मैंने मार्क्स, लेनिन, त्रोत्स्की को खूब पढ़ा था. यह सब नास्तिक थे. जो अपने विचारों के दम पर अपने देश में क्रांति लेकर आए थे. इस विषय पर मैंने अपने दोस्तों से काफी बहस की. जिसके चलते मैं घोषित नास्तिक हो गया था.
भगत सिंंह  ने इसी लेख में लिखा कि मैं मानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अंतिम क्षण होगा.

गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास किया था

सूचना क्रांति के बाद के दौर में लोगों के मन में भगत सिंह और गांधी के रिश्तों के बारे में कई गलतफहमियां होती चली आई हैं. देश के काफी सारे लोगों का मानना है कि भगत सिंह को बचाने के लिए महात्मा गांधी ने कोई प्रयास नहीं किया था. लेकिन तथ्यों और अध्ययन करने पर पता चलता है कि गांधी ने वायसराय को कई बार भगत सिंह को बचाने के लिए पत्र लिखा था. लोगों का यह भी मानना था कि गांधी-इरविन पैक्ट के समय गांधी भगत सिंह की रिहाई की मांग रख सकते थे. भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दिए जाने के तीन दिन बाद हुए कराची अधिवेशन में गांधी ने उन पर उठाए गए सभी सवालों का जवाब दिया.


उन्होंने कहा- किसी को भी सज़ा देना मेरे नियमों के खिलाफ है. हम भगत सिंह को नहीं बचा पाए. लेकिन मैं मानता हूं कि उनका रास्ता गलत था. जो राह उन्होंने चुनी वो गलत थी.
31 जनवरी 1931 को गांधी ने इलाहाबाद में कहा था – जिसे मृत्यु दंड दिया गया है उन्हें फांसी नहीं देनी चाहिए. मेरा व्यक्तिगत धर्म यह कहता है कि उन्हें जेल में भी नहीं रखना चाहिए. हालांकि यह मेरा अपना मत है.
18 फरवरी को भगत सिंह का मुद्दा गांधी ने वायसराय के आगे उठाया. गांधी ने इस बात को यंग इंडिया में लिखा. उन्होंने लिखा कि मैंने वायसराय से कहा कि इस बात का हमारी चर्चा से कोई लेना देना नहीं है. अगर आप इस बात को करने के लिए वर्तमान माहौल को ठीक मानते हैं तो हम इस पर बात कर सकते हैं. आपको भगत सिंह की फांसी को रोक देना चाहिए. इस प्रस्ताव पर वायसराय काफी खुश हुए. उन्होंने कहा कि आपने इस तरह से इस मुद्दे को उठाया यह मुझे काफी अच्छा लगा. हम फांसी की सज़ा को हटा नहीं सकते लेकिन इसके स्थगित करने पर विचार कर सकते हैं.
गांधी किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ थे. वो अहिंसा के सहारे स्वतंत्रता पाने के पक्षधर थे. ऐसे में भगत सिंह और उनके कुछ साथियों द्वारा हिंसा का सहारा लेकर स्वतंत्रता पाने के फैसले को गांधी ठीक नहीं मानते थे. अंग्रेज़ी सरकार द्वारा फांसी की सज़ा सुनाने को लेकर गांधी सहमत नहीं थे. गांधी ने 7 मार्च 1931 को दिल्ली में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था – मैं किसी भी व्यक्ति की फांसी की सज़ा को लेकर सहमत नहीं हूं. भगत सिंह की भी नहीं.
भगत सिंह को समझने के लिए जरूरी है कि आप तथ्यों और अध्ययन के सहारे उन्हें जाने. वर्तमान समय में हर कोई अपने-अपने हिसाब से भगत सिंह को ढालना चाहता है. लेकिन उनके मूल विचारों को समझा जाए तो उसके केंद्र में समानता है जो किसी भी तरह से किसी से कोई भी भेदभाव करने की पक्षधर नहीं है. जब भगत सिंह को हम उनकी 112वीं जयंती पर याद कर रहे हैं तो क्या उनकी कल्पना का समतामूलक समाज हम बना पाए हैं. क्या समाज में सभी समान हो सके हैं. अगर नहीं तो इतने सालों से उन्हें याद करने का हासिल क्या हुआ है. भगत सिंह का इस्तेमाल करके हमने अब तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा, आत्मसंतुष्टि और सामाजिक बदलाव इन तीनों में से क्या पाया है?